Monday, 1 June 2020

सैन्धव सभ्यता की उतपत्ति


आश्चर्य एवं खेद का विषय है कि इतनी विस्तृत सभ्यता होने के बावजूद भी इस सभ्यता के उद्‌भव और विकास के सम्बन्ध में विद्वानों में भारी मतभेद है । अभी तक की खोजों से इस प्रश्न पर कोई भी प्रकाश नहीं पड़ सका है, कारण कि इस सभ्यता के अवशेष जहाँ कहीं भी मिले है अपनी पूर्ण विकसित अवस्था में ही मिले है ।

सर जॉन मार्शल, गार्डन चाइल्ड, सर मार्टीमर ह्वीलर आदि पुराविदों की मान्यता है कि सैन्धव सभ्यता की उत्पत्ति मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता से हुई । इन विद्वानों के अनुसार सुमेरियन सभ्यता सैन्धव सभ्यता से प्राचीनतर थी ।

इन दोनों सभ्यताओं में कुछ समान विशेषतायें देखने को मिलती है जो इस प्रकार है:

(i) दोनों नगरीय (Urban) सभ्यतायें है ।

(ii) दोनों के निवासी कांसे तथा ताँबे के साथ-साथ पाषाण के लघु उपकरणों का प्रयोग करते थे ।

(iii) दोनों के भवन कच्ची तथा पक्की ईंटों से बनाये गये थे ।

(iv) दोनों सभ्यताओं के लोग चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाते थे ।

(v) दोनों को लिपि का ज्ञान था ।

उपर्युक्त समानताओं के आधार पर ह्वीलर ने सैन्धव सभ्यता को सुमेरियन सभ्यता का एक उपनिवेश (Colony) बताया है । किन्तु गहराई से विचार करने पर यह मत तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता । कारण कि दोनों सभ्यताओं में इन बाह्य समानताओं के होते हुए भी कुछ मौलिक विषमतायें भी हैं जिनकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते ।

सैन्धव सभ्यता की नगर-योजना सुमेरियन सभ्यता की अपेक्षा अधिक सुव्यवस्थित है । दोनों के बर्तन, उपकरण, मूर्तियाँ, मुहरें आदि आकार-प्रकार में काफी भिन्न है । यह सही है कि दोनों ही सभ्यताओं में लिपि का प्रचलन था । किन्तु दोनों ही लिपियाँ परस्पर भिन्न हैं ।

जहां सुमेरियन लिपि में 900 अक्षर हैं, वहाँ सैन्धव लिपि में केवल 400 अक्षर मिलते हैं । इन विभिन्नताओं के कारण दोनों सभ्यताओं को समान मानना समीचीन नहीं होगा । पुनश्च यह मत उस समय प्रतिपादित किया गया जबकि भारतीय उपमहाद्वीप में प्राक् हड्प्पाई सांस्कृतिक परिवेश का ज्ञान हमें नहीं था ।

किन्तु अब इस क्षेत्र में प्राक् हड़प्पाई पुरास्थलों से प्रचुर सामग्रियों के मिल जाने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि सैन्धव सभ्यता की जड़ें भारत भूमि में ही जमी थीं और इसके लिये किसी बाह्य प्रेरणा की आवश्यकता नहीं थी ।

यह पूर्वगामी संस्कृतियों के क्रमिक विकास का परिणाम है जिसके तार मेहरगढ के नवपाषाणिक स्थल से जुड़े हैं । अतः हम सैन्धव सभ्यता को सुमेरियन उपनिवेशीकरण का परिणाम नहीं कह सकते है । राव के अनुसार सिन्धु सभ्यता के विकास का श्रेय उसी संस्कृति को दिया जा सकता है जो कालक्रम की दृष्टि से उससे प्राचीन हो तथा उसके साथ-साथ विद्यमान रही हो, जिसमें परिवर्तन के क्रमिक चरण स्पष्ट ही तथा वे तत्व हो जो सैन्धव सभ्यता को विशिष्टता प्रदान करते है ।

प्रो॰ टी॰ एन॰ रामचन्द्रन, के॰ एन॰ शास्त्री, पुसाल्कर, एस॰ आर॰ राव आदि विद्वान् वैदिक आर्यों को ही इस सभ्यता का निर्माता मानते हैं । परन्तु अनेक विद्वान् इसे स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनके अनुसार दोनों ही सभ्यताओं के रीति-रिवाजों, धार्मिक तथा आर्थिक परम्पराओं में पर्याप्त विभिन्नतायें दिखाई देती हैं ।

सैंधव तथा वैदिक सभ्यताओं के मुख्य अन्तर इस प्रकार है:

(a) वैदिक आर्यों की सभ्यता ग्रामीण एवं कृषि प्रधान थी जबकि सैंधव सभ्यता नगरीय तथा व्यापार-व्यवसाय प्रधान थी । आर्यों के मकान घास-फूस तथा बांस की सहायता से बनते थे किन्तु सैन्धव लोग इसके लिये पक्की ईंटों का प्रयोग करते थे ।

(b) सैंधव सभ्यता के निर्माता पाषाण तथा काँसे के उपकरणों का प्रयोग करते थे और लोहे से परिचित नहीं थे । इसके विपरीत वैदिक आयों को लोहे का ज्ञान था ।

(c) वैदिक आर्य इन्द्र, वरुण आदि देवताओं के उपासक थे वे यज्ञ करते थे तथा लिहर-पूजा और मूर्ति-पूजा के विरोधी थे । परन्तु सैधव लोग मुख्य रुप ले मातादेवी तथा शिव के पूजक थे, लिड्गों की पूजा करते थे तथा मूर्ति-पूजा के समर्थक थे ।

(d) आर्यों का प्रिय पशु अश्व था जिसकी सहायता से वे युद्धों में विजय प्राप्त करते थे । किन्तु सैंधव लोग अश्व से परिचित नहीं थे । सिन्धु सभ्यता के लोग व्याघ्र तथा हाथी से भी परिचित थे क्योंकि उनकी मुद्राओं पर इन पशुओं का अंकन हुआ है । इसके विपरीत वैदिक आर्यों को इनका ज्ञान नहीं थी ।

(e) आर्यों के धार्मिक जीवन में गाय की महत्ता थी । इसे ‘अघ्न्या’ कहा गया है । इसके विपरीत सैधव लोग वृषभ को पवित्र एवं पूज्य मानते थे ।

(f) सैन्धव निवासियों के पास अपनी एक लिपि थी, जबकि आर्य लिपि से परिचित नहीं लगते । उनकी शिक्षा प्रणाली मौखिक थी ।

यह प्रस्तावना नितान्त तथ्यहीन है कि सिन्धु सभ्यता नागर एवं साक्षर थी तथा वैदिक सभ्यता ग्रामीण, पशुचारी एवं निरक्षर । डा॰ जी॰ सी॰ पाण्डे ने हाल ही में प्रकाशित अपने ग्रन्थ वैदिक संस्कृति में इस बात का उल्लेख किया है कि ऋक्‌संहिता में कम से कम 85 बार ‘पुर’ का उल्लेख हुआ है जबकि ग्राम मात्र नौ बार तथा ‘ग्राम्य’ एक बार आता है । “न तो हड़प्पा सभ्यता मात्र नागरिक थी, न वैदिक सभ्यता मात्र पशुपालक-यायावरीय । दोनों ही सभ्यतायें देश-काल में विस्तार और प्राविधिक विकास की दृष्टि से समान है । स्थूल रूप से उनमें एक ही विशाल सभ्यता के विविध पक्ष, प्रदेश या अवस्थायें देखी जा सकती हैं” ।

वेदों में लेखन परम्परा के अभाव का कारण यह नहीं है कि आर्य लिपि से अपरिचित थे । इतना विस्तृत गद्य, व्याकरण, मानक भाषा, बिना लिपि के संभव नहीं है । वेद रचना निरक्षर समाज में नहीं हुई । लिपि के अभाव का कारण यह है कि रहस्यात्मक परमज्ञान के लिये लेखन उपयोगी न होकर वाधक माना गया है । जहाँ तक मूर्ति पूजा, लिंग पूजा, योनि पूजा आदि का सम्बन्ध है, हड़प्पा सभ्यता में इनका प्रचलन भी असंदिग्ध रूप से नहीं सिद्ध किया जा सकता ।

उल्लेखनीय है कि लोथल, कालीबंगन आदि कुछ सैन्धव स्थलों से यज्ञीय वैदिया प्राप्त होती है । इसी प्रकार मोहनजोदड़ो से मिट्‌टी की बनी घोड़े की आकृति, लोथल से घोड़े की तीन मृण्मूर्तिया तथा सुरकोटड़ा से घोड़े की हड्डियाँ प्राप्त हो चुकी हैं ।

लोथल के घोड़े का दायाँ ऊपरी चौघड् (Upper Molar) भी मिलता है जिसके दांत बिल्कुल आधुनिक अश्व के दांत जैसे ही हैं । समुद्री यात्रा, जलयान आदि से संबंधित विवरण यह सिद्ध करते है कि इस सभ्यता में नगरीय तत्व पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थे । वैदिक साहित्य में जो भौतिक सभ्यता मिलती है वही सिख में भी है ।

सैधव सभ्यता की खुदाई से भिन्न-भिन्न जातियों के अस्थिपंजर प्राप्त होते हैं । इनमें प्रोटो- आस्ट्रलायड (काकेशियन) भूमध्यसागरीय, मंगोलियन तथा अल्पाइन-इन चार जातियों के अस्थिपंजर है । मोहेनजोदड़ों के निवासी अधिकांशत भूमध्य-सागरीय थे । अधिकांश विद्वानों की धारणा है कि सैंधव मध्यता के निर्माता द्रविड़ भाषी लोग थे ।

सुनीति कुमार चटर्जी ने भाषाविज्ञान के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ऋग्वेद में जिन दास-दस्युओं का उल्लेख हुआ है वे द्रविड़ भाषी थे और उन्हें ही सिन्ध सभ्यता के निर्माण का श्रेय दिया जाना चाहिये । किन्तु यह निष्कर्ष भी सदिग्ध है । यदि द्रविड सैन्धव सभ्यता के नाल होते तो इस सभ्यता का कोई अवशेष द्रविड़ क्षेत्र से अवश्य मिलता । सैन्धव सभ्यता के विस्तार वाले भाग से ब्राहुई भाषा के साक्ष्य नहीं मिलते । बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा को द्रविड़ भाषा के साथ संबद्ध करने का कोई पुष्ट आधार नहीं है ।

स्ट्रअर्ट पिग्गट, अल्चिन, स्ट्रअर्ट पिग्गट, अल्चिन, फेयरसर्विस, जे॰ एफ॰ देल्स आदि कुछ पुराविदों का विचार है कि सैन्धव सभ्यता की उत्पत्ति दक्षिणी अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सिन्ध तथा पंजाब (पाकिस्तान) और उत्तरी राजस्थान (भारत) के क्षेत्रों में इसके पूर्व विकसित होने वाली ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों-मुंडीगाक, मोरासी घुंडई, जाब, क्वेटा, कुल्ली, नाल, आमरी, कोटदीजी, हडप्पा तथा कालीबगँन से हुई ।

इन ग्रामीण संस्कृतियों के लोग कृषि कर्म तथा पशुपालन करते थे और विविध अलंकरणों वाले मिट्टी के बर्तन तैयार करते थे । खुदाई से पशु तथा नारी मूर्तियों भी मिलती है । अनुमान किया जा सकता है कि बलूचिस्तान के लोग मातादेवी की पूजा तथा लिड्गोपासना भी करते रहें होंगे । उल्लेखनीय है कि इन संस्कृतियों के पात्रों पर प्राप्त कुछ चित्रकारियाँ, जैसे पीपल की पत्ती, हिरण, त्रिभुज आदि सैन्धव पात्रों पर भी प्राप्त होती है ।

कोटदीजी, कालीबंगन, बनावली तथा हड़प्पा की खुदाइयों में प्राप्त शाक सैन्धवकालीन स्तर स्पष्टतः नगरीकरण के प्रमाण प्रस्तुत करते है । नगर नियोजन, उत्तर-दक्षिण दिशा में निर्मित भवन, बस्ती का दुर्गीकरण, गढ़ी तथा निचले नगर की अवधारणा, पकी ईटों का प्रयोग, अन्नागारों का निर्माण आदि के साक्ष्य मिलते है । बनावली के अवशेषों से प्रौढ़ हड़प्पन विकास कम और अधिक स्पष्ट हो जाता है । प्रारम्भ से ही यहाँ के निवासी अपने मकान सीधी दिशा में बनाते थे । यही की खुदाई में पत्थर का एक बटखरा भी मिलता है ।

अतः इतनी अधिक सामग्रियों के मिल जाने के वाद सैन्धव सभ्यता के लिए किसी पाश्चात्य एशियाई प्रेरणा को ढूँढने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती तथा यह स्पष्ट हो जाता है कि इस सभ्यता की जड़ें भारतीय उपमहाद्वीप में ही जमी थी ।

नगर का विकास सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना सम्भव नहीं है और यह आधार निश्चित रूप से सिन्ध, पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान की समृद्ध ग्रामीण संस्कृतियों ने प्रदान किया था । सम्भव है भविष्य की खुदाइयों में इन क्षेत्रों से और अधिक स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हो जाय । अतः इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि सैन्धव सभ्यता का विकास इसी क्षेत्र की पूर्ववर्ती सभ्यताओं से हुआ है ।

एक नवीन खोज, जिसके जनक पुरातत्ववेत्ता प्रो॰ मीडो हैं, में दावा किया गया है कि सैन्धव सभ्यता को प्राचीनतम मानना क भ्रान्ति है । भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता सरस्वती नदी के तट पर सिन्धु सभ्यता के पूर्व (लगभग 3300 ई॰ पू॰) फली-फूली तथा विकसित हुई ।

अब वेदों में वर्णित सरस्वती का अस्तित्व उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर प्रमाणित हो चुका है । इस नदी का बहाव उस समय हिमालय से लेकर वर्तमान हरियाणा, राजस्थान और गुजरात तक था । राखीगढ़ी के उत्खनन से इस धारणा को बल मिला है ।