Wednesday, 22 June 2016

कृषक आंदोलन

किसान व मजदूर आंदोलन :

● ‘बारदोली सत्याग्रह’ का नेतृत्व किसने किया— वल्लभ भाई
पटेल, 1928 ई.
● किस प्रदेश में ब्रिटिश के विरुद्ध बिरसा मुंडा का संचालन रहा—
छोटा नागपुर
● ‘वाय कोम सत्याग्रह’ कहाँ चलाया गया— केरल, 1924-25 ई.
● ‘दलित वर्ग मिशन समाज’ की स्थापना किस स्थान पर की गई—
1906ई., मुंबई
● ‘दलित वर्ग मिशन समाज’ की स्थापना किसने की— वी. आर.
शिंदे
● ‘नानू आसन’ किसे कहा जाता है— श्रीनारायण गुरु बहुजन समाज
की स्थापना किसने की— वी. आर. शिंदे
● ‘नानू आसन’ किसे कहा जाता है— श्रीनारायण गुरु
● बहुजन समाज की स्थापना किसने की— मुकुंदराव पाटिल
● बहुजन समाज की स्थापना कब व कहाँ की गई— 1910 ई.,
सतारा में
● ‘अखिल भारतीय व्यापार संघ कांग्रेस’ का प्रथम अध्ययक्ष कौन
था— लाला लाजपत राय
● 1895-1900 ई. की ‘मुंडा क्रांति’ का नेता कौन था— बिरसा
मुंडा
● 1855 ई. में संथालों ने किस अंग्रेज कमांडर को हराया— मेजर
बरो
● ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ के प्रथम सत्र की अध्यक्षता
किसने की— स्वामी सहजानंद
● मुंडाओं ने विद्रोह कब किया— 1895 ई.
● ‘हो’ विद्रोह कब हुआ— 1820-21 ई. के दौरान
● ‘छोटा नागपुर काश्त अधिनियम’ 1908 ई. में किस पर रोक
लगाई— बेठवेगारी पर
● मानव बलि प्रथा का निषेध करने के कारण अंग्रेजों के विरुद्ध
किसने आंदोलन खड़ा किया— खोंड जनजाति
● कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल का सदस्य बनने वाला प्रथम भारतीय कौन
था— एम. एन.रॉय
● महाराष्ट्र में ‘रामोसी कृषक जत्था’ की स्थापना किसने की—
वासुदेव बलवंत फड़के
● छोटा नागपुर जनजाति विद्रोह कब हुआ— 1820 ई.
● गांधी का चंपारण सत्याग्रह किससे जुड़ा था— तिनकठिया से
● ‘उलगुलान’ महाविद्रोह किससे जुड़ा था— बिरसा मुंडा
● खैरवार आदिवासी आंदोलन कब हुआ— 1874 ई.
● मोपला आंदोलन कब और कहाँ हुआ— 1921 ई., मालाबार
● ‘गुलामगिरि’ का लेखक कौन था— ज्योतिबा फूले
● ‘पागल पंथी’ विद्रोह किसका था— गारो जनजाति
● कौन-सी घटना महाराष्ट्र में घटित हुई— भील विद्रोह
● नील आंदोलन का जमकर समर्थन करने वाले ‘हिंदू पैट्रियाट’ के
संपादक कौन थे— हरिशचंद्र मुखर्जी
● भीमराव अंबेडकर की पढ़ाई-लिखाई में किसने सहयोग दिया—
बड़ौदरा के महाराज ने
● पूना समझौता किस-किस के मध्य हुआ— महात्मा गाँधी व बी.
आर. अंबेडकर
● महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के का विद्रोह कब हुआ— 1879
ई.
● चंपारण सत्याग्रह कब प्रारंभ हुआ— 1917 ई.
● चंपारण के नील सत्याग्रह का उद्देश्य क्या था— नील उत्पादक
ड्डषकों द्वारा तिनकठिया पृथा का विरोध
● मोपला विद्रोह का नेता कौन था— मुसलियार
● भारत के ‘ट्रेड यूनियन आंदोलन’ के जन्मदाता कौन थे— एन.
एम. जोशी
● ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ सर्वप्रथम कहाँ आयोजित की गई
— लखनऊ
● ‘ट्रेड यूनियन आंदोलन’ कब हुआ— 1926 से 1939 तक
● ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ का गठन कब हुआ— 1936 ई.
● भारत के पहले मजूदर संघ की स्थापना कब हुई— 1890 ई.
● किस विद्रोह में कृषकों ने यह नारा दिया कि ‘हम महारानी और
सिर्फ महारानी की रैयत होना चाहते हैं’— पावना विद्रोह में
● आधुनिक युग का मनु किसे कहा जाता है— डॉ. भीमराव अंबेडकर
● सत्यशोधक समाज की स्थापना किसने की— ज्योतिबा फूले ने
● ‘नाई-धोबी बंद’ सामाजिक बाहिष्कार कब चलाया गया— 1919
में
● अवध के एका आंदोलन का उद्देश्य क्या था— सरकार को लगान
ने देना
● ‘ताना भगत आंदोलन’ कब आरंभ हुआ— 1914 म

Monday, 20 June 2016

अकबर

अकबर (1556 ई. – 1605 ई.) से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य-

-1556 ई. में हुमायूं की मृत्यु के बाद उसके पुत्र अकबर का
कलानौर नामक स्थान पर 14 फरवरी, 1556 को मात्र 13 वर्ष
की आयु में राज्याभिषेक हुआ।
-अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 को अमरकोट के राजा
वीरसाल के प्रसिद्द महल में हुआ था।
-अकबर ने बचपन से ही गजनी और लाहौर के सूबेदार के रूप में
कार्य किया था।
भारत का शासक बनने के बाद 1556 से 1560 तक अकबर बैरम खां
के संरक्षण में रहा।
-अकबर ने बैरम खां को अपना वजीर नियुक्त कर खाना-ए-खाना की
उपाधि प्रदान की थी।
-5 नवम्बर, 1556 को पानीपत के द्वितीय युद्ध में अकबर की सेना
का मुकाबला अफगान शासक मुहम्मद आदिल शाह के योग्य सेनापति
हेमू की सेना से हुआ, जिसमें हेमू की हार एवं मृत्यु हो गयी।
-1560 से 1562 ई. तक दो वर्षों तक अकबर अपनी धय मां महम
अनगा, उसके पुत्र आदम खां तथा उसके सम्बन्धियों के प्रभाव में
रहा। इन दो वर्षों के शासनकाल को पेटीकोट सरकार संज्ञा दी गयी
है।
-अकबर ने दक्षिण भारत के राज्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित
किया था। खानदेश (1591), दौलताबाद (1599), अहमदनगर
(1600) और असीर गढ़ (1601) मुग़ल शासन के अधीन किये गए।
-अकबर ने भारत में एक बड़े साम्राज्य की स्थापना की, परन्तु इससे
ज्यादा वह अपनी धार्मिक सहिष्णुता के लिए विख्यात है।
-अकबर ने 1575 ई. में फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना की स्थापना
की। इस्लामी विद्वानों की अशिष्टता से दुखी होकर अकबर ने 1578
ई. में इबादतखाना में सभी धर्मों के विद्वानों को आमंत्रित करना शुरू
किया।
-1582 ई. में अकबर ने एक नवीन धर्म ‘तोहिद-ए-इलाही’ या
‘दीन-ए-इलाही’ की स्थापना की, जो वास्तव में विभिन्न धर्मों के
अच्छे तत्वों का मिश्रण था।
-अकबर ने सती प्रथा को रोकने का प्रयत्न किया, साथ ही विधवा
विवाह को क़ानूनी मान्यता दी। अकबर ने लड़कों के विवाह की उम्र
16 वर्ष और लड़कियों के लिए 14 वर्ष निर्धारित की।
-अकबर ने 1562 में दास प्रथा का अंत किया तथा 1563 में
तीर्थयात्रा पर से कर को समाप्त कर दिया।
-अकबर ने 1564 में जजिया कर समाप्त कर सामाजिक सदभावना
को सुदृढ़ किया।
-1579 में अकबर ने ‘मजहर’ या अमोघवृत्त की घोषणा की।
-अकबर ने गुजरात विजय की स्मृति में फतेहपुर सीकरी में ‘बुलंद
दरवाजा’ का निर्माण कराया था।
-अकबर ने 1575-76 ई. में सम्पूर्ण साम्राज्य को 12 सूबों में
बांटा था, जिनकी संख्या बराड़, खानदेश और अहमदनगर को जीतने
के बाद बढ़कर 15 हो गयी।
-अकबर ने सम्पूर्ण साम्राज्य में एक सरकारी भाषा (फारसी), एक
समान मुद्रा प्रणाली, समान प्रशासनिक व्यवस्था तथा बात माप
प्रणाली की शुरुआत की।
-अकबर ने 1573-74 ई. में ‘मनसबदारी प्रथा’ की शुरुआत की,
जिसकी खलीफा अब्बा सईद द्वारा शुरू की गयी तथा चंगेज खां और
तैमूरलंग द्वारा स्वीकृत सैनिक व्यवस्था से मिली थी।

Monday, 13 June 2016

सिंधु सभ्यता स्थल से प्राप्त वस्तुएं

सिन्धु सभ्यता से प्राप्त अवशेष का विवरण
(1) हड़प्पा  के प्राप्त अवशेष-
बारह कक्षो वाला अन्नागार
आर-37 कब्रिस्तान
कर्मचारी आवास
दस्तकारी मंच
सर्वाधिक अभिलेख युक्त मुहर
शंख का बना बैल
स्त्री के गर्भ से निकला हुआ पौधा
पीतल का बना इक्का
ईटों के वक्राकार चबूतरे
गेहूं और जौ के दाने
ह्वीलर ने पश्चिम दुर्ग के टीले को माउण्ट ए बी संज्ञा दी है।

(2) मोहनजोदड़ो  से प्राप्त वस्तुए
विशाल अन्नागार- मोहनजोदड़ो की सबसे बड़ी इमारत
स्नानागार- मार्शल ने इसे तत्कालीन विश्व का एक आश्चर्यजनक
निर्माण कहा।
नगर योजना-सड़को का समानान्तर जाल
स्तूपटीला- मोहनजोदडो के पश्चिम भाग में स्थित दुग टीलो को कहते
है। (कुषाणों ने इसका निर्माण करवाया)
महाविद्यालय भवन
कांसे की नृत्यरत नारी की मूर्ति
पुजारी अथवा योगी की मूर्ति
मुद्रा पर अंकित पशुपतिनाथ की मुर्ति
कुम्भकारो के छः भट्टे
हाथी का कपाल खण्ड
गले हुए ताबें के ढेर
सीपी की बनी हुई पटरी
कुएं से प्राप्त नर कंकाल जो अंतिम स्तर पर बिखरे हुए मिले।
घोडे़ के दांत
गीली मिट्टी पर कपड़े के साक्ष्य

(3) चन्हूदड़ो से प्राप्त अवशेष
झूकर और झांगर सस्कृति के अवशेष
एकमात्र स्थल जहाॅ से वक्राकार ईटें मिली है।
एकमात्र स्थल जहाॅ दुर्ग का अवशेष नही मिला है।
अंलकृत हाथी
बिल्ली का पीछा करते कुत्ते के पदचिन्ह
लिपिस्टिक
मनके,सीप ,मुद्रा बनाने का प्रसिद्व केन्द्र था।
यहाॅ के निवासी कुशल कारीगर थे
लोथल से मिल अवशेष
मकान का दरवाजा सड़क की और खुलता था।
फारस की मुद्रा
पक्के रंग मे रंगे पात्र
बन्दरगाह
धान और बाजरे का साक्ष्य
घोड़े की लघु मिट्टी की मूर्तिया
तीन युगल समाधि

(4) कालीबंगा से मिल अवशेष
जुते हुए खेत
हवन कुण्ड का अस्तिव्य
कब्रिस्तान
कच्ची ईटों से बने घर
जल निकासी प्रणाली का अभाव
हड़प्पा कालीन सांस्कृतिक युग के पाॅच स्तरो का पता
सेलखड़ी की मुहरें
बेलनाकार मुहरें
अलंकृत ईटों का प्रयोग
युगल तथा प्रतिकात्मक समाधिया

(5) बनवाली से मिले अवशेष
हल की आकृति
तिल ,सरसों के ढेर,अच्छे किस्म के जौ
मनके, तांबे के बाण,चर्ट के फलक
सुरकोटडा से मिले अवशेष
घोडे की अस्थिया
एक विशेष प्रकार का कब्रगाह
रंगपुर से मिले अवशेष
धान की भूसी
कच्ची ईटों का दुर्ग
सैन्धव संस्कृति के उत्तरावस्था के दर्शन

(6) कोटदीजी से मिले अवशेष
कांस्य की चूडि़या
धातु के उपकरण तथा हथियार
धौलावीरा
नगर तीन भागो में विभाजित-नगरदुर्ग, मध्य नगर, निचला नगर

Friday, 27 May 2016

उत्तर वैदिक काल में जीवन ( भाग -2)

अर्थव्यवस्था (Economy) -- उत्तर वैदिक काल में विभिन्न
क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन देखे जाते हैं। भारत के उत्तरी भाग में
लौह युग का प्रारम्भ हुआ, जिससे कृषि कार्य के लिए नवीन
उपकरणों का निर्माण होने लगा। कृषि के प्रसार से कबायली संगठन
में भी विघटन हुआ एवं छोटे-छोटे कबीले एक दूसरे में विलीन होकर
बड़े क्षेत्रगत जनपदों के रूप में उभर रहे थे। कृषि लोगों का प्रमुख
व्यवसाय बन चुका था और इस तरह सामान्य जीवन में स्थायित्व
का विकास हुआ। इस काल में स्थायी रूप से खेती करने के लिए
जंगल साफ करने हेतु लोहे की कुल्हाड़ी का प्रयोग किया गया। ऐसा
समझा जाता है कि लोहे के नोक वाले हल एवं कुदाल ने कृषि यन्त्रों
की क्षमता को बढ़ाया जिससे कृषि कार्यों का विस्तार हुआ।
विद्वानों की मान्यता है कि लोहे के प्रयोग ने कृषि अर्थव्यवस्था
को और विकसित करने में विशेष योगदान दिया। तथापि लौह
उपकरणों के निर्माण में वांछित विकास अभी तक नहीं हो पाया था।
उत्तर वैदिक काल में कृषि आर्यों का मुख्य पेशा हो गयी। तैतरीय
उपनिषद् में कहा गया है कि अन्न ही ब्रह्म है। इसी अन्न से
समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं। कृषि हल-बैल की सहायता से होती
थी। अथर्ववेद का यह कथन है सर्वप्रथम पृथ्वीवेन ने हल और
कृषि को जन्म दिया। जौ के अतिरिक्त अब गेहूँ एवं चावल मुख्य
फसल हो गई और भी कई प्रकार की फसले अस्तित्व में आ गई।
तैतरीय संहिता में जौ, धान, उड़द, तिल आदि की चर्चा है। अथर्ववेद
में छह से बारह बैल हल में जोतकर गहरी जुताई करने का वर्णन तथा
खाद का प्रयोग करने का उल्लेख मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में
खेत जोतनें, बीज बोने, फसल काटने और पीटकर अनाज गाहने का
वर्णन है। इस काल में किसान पहले हल में गुलर उदुम्बर या खादिर
की लकड़ी का प्रयोग करते थे। आगे चलकर 700 ई.पू. के लगभग
लोहे की फाल का प्रयोग हुआ। साठ दिनों में पकने के कारण, धान
को षष्ठि भी कहा जाता था। चावल के विभिन्न प्रकारों में
आशुधान्य जल्दी पकने वाली चावल था, जबकि हायन् एक वर्ष में
पकने वाला चावल था। यजुर्वेद में चावल के पाँच किस्मों की चर्चा
हुई है यथा, महाब्रीहि, कृष्णब्रीहि, शुक्लब्रीहि, आशुधान्य और
हायन्। अथर्ववेद में चावल के दो किस्म-ब्रीहि एवं तन्दुल की चर्चा
है। अंतरजीखेड़ा और हस्तिनापुर से चावल के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
यजुर्वेद में कुछ अन्य फसल मास (उड्द), यव (जौ), श्यामाक (मोटे
अनाज), गन्ना, तिल, सन (पटुआ) की चर्चा है। बाजसनेयी संहिता
में गेहूँ के लिए गोधूम शब्द का उल्लेख है। सर्वप्रथम शतपथ
ब्राह्मण में कृषि की समस्त प्रक्रियाओं का वर्णन है। काष्क
संहिता में 24 बैलों के द्वारा जुताई की चर्चा मिलती है।
संभवत: अधिक गहराई से जुताई होती थी। शतपथ ब्राह्मण में कृषि
से संबंधित अनुष्ठानों की चर्चा है। राजा जनक स्वयं हल का फाल
पकड़ते हैं। बलराम हलधर कहे जाते थे। इसका अर्थ है, अब कृषि
कार्य से जुड़े व्यक्तियों को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था।
अथर्ववेद में सिंचाई के साधन के रूप में वर्णाकूप एवं नहर (कुल्या)
का उल्लेख है। वर्ष में दो फसलें उगाई जाती थीं और खाद के रूप में
गोबर (शकृत और करिषु) का प्रयोग होता था। अथर्ववेद में मौसम
(प्रतिवृष्टि और अनावृष्टि) की भविष्यवाणी करने वाले का उल्लेख
मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद् में टिड्डियों द्वारा फसल नष्ट होने
के कारण दुर्भिक्ष का वर्णन मिलता है तथा इस दुर्भिक्ष के कारण
ऋषि चक्रायण को सपत्नीक कुरूदेश छोड़कर अन्य प्रदेश में जाना
पड़ा तथा कुल्माष खाकर रहना पड़ा। अथर्ववेद में सिंचाई के लिए
नहर खोदने का उल्लेख भी मिलता है। अनावृष्टि की भी स्थिति होती
थी और उससे बचने के लिए अथर्ववेद में मंत्र दिए गए हैं। छांदोग्य
उपनिषद् में एक दुर्भिक्ष का उल्लेख है। उत्तर वैदिक काल में भूमि
दान की चर्चा नहीं मिलती है। ऐसा भवना विश्वकर्मा नामक राजा
की कहानी से ज्ञात होता है। अथर्ववेद में ही गोहत्या करने वालों के
लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान होने का उल्लेख मिलता है। उत्तर
वैदिक काल तक आते-आते भूमि के निजी उपयोग के संकेत भी मिलने
लगते हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में इस बात के संकेत मिलते हैं कि कोई
क्षत्रिय अपने कबीले की सहमति से भूमि दान में दे सकता था।
भवना विश्वकर्मा ने एक ब्राह्मण को भूमिदान दिया था।
पशुपालन - यह भी एक महत्त्वपूर्ण पेशा था। अथर्ववेद में एक
जगह गाय, बैल और घोड़ों की प्राप्ति के लिए इंद्र से प्रार्थना की
गई है। शतपथ ब्राह्मण में एक स्थान पर स्पष्ट कहा गया है कि
गाय और बैल पृथ्वी को धारण करते हैं। अत: उनका माँस नहीं खाना
चाहिए। गाय बैल के अतिरिक्त भैस, भेड़, बकरी विशेष महत्त्वपूर्ण
थे। बड़े बैल को महोक्ष कहा जाता था। उत्तर वैदिक काल की एक
विशेषता थी पालतू हाथियों को रखना। अत: उनकी देखभाल करना
भी एक व्यवसाय था। इसे हस्तिप कहा जाता था। यजुर्वेद से भी
इस बात की सूचना मिलती है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, दो गदहे
अश्विन देवताओं का रथ खींचते थे। शतपथ ब्राह्मण में शूकर
(सुअर) की चर्चा की गई है। यजुर्वेद में कैबर्न (मछुआरे) का
उल्लेख है।
शिल्प – उत्पादन अधिशेष इतना अधिक नही था कि उन्नत
अर्थव्यवस्था का निर्माण हो सके क्योंकि अभी भी कृषि कायों में
दासों को नहीं लगाया जाता था। वरन् केवल घरेलू सदस्यों की
सहायता से ही कृषि कार्य किए जाते थे।
कृषि के साथ विभिन्न प्रकार के उद्योगों एवं शिल्पों का उदय
उत्तर वैदिककालीन अर्थव्यवस्था की विशेषता थी। इस काल के
साहित्य में विविध उद्योगों की लम्बी सूची मिलती है। इन लघु
उद्योगों के लिए शिल्प शब्द का प्रयोग हुआ है। यजुर्वेद के
अतिरिक्त वाजसनेयी संहिता, शतपथ ब्राह्मण, पंचविशब्राह्मण
आदि में अनेक शिल्पकारों का विवरण मिलता है। पुरुष मेघ यज्ञ में
विभिन्न श्रेणी के मनुष्यों के रूप में दी जाने वाली बलि के सन्दर्भ
में तत्कालीन व्यवसायों की लम्बी सूची मिलती है। यहाँ प्रमुख
व्यवसायी वर्गों का उल्लेख करना युक्ति संगत होगा।
मागध का उल्लेख याज्ञवल्क्य एवं बौधायन (1/9/7) ने किया
है। यह परवर्ती काल के चारण-भाटों के समान एक वर्ग था। शैलूष
का उल्लेख विष्णुधर्म सूत्र (54/13), आपस्तम्ब (9/38) एवं
याज्ञवल्क्य (2/48) ने किया है। इन्हें अभिनय से मनोरंजन करने
वाला कहा गया है। रथकार न केवल रथ का निर्माण करते थे, बल्कि
समाज के उपयोग में आने वाले अनेक लकड़ी के समान भी बनाते रहे
होंगे। इसका उल्लेख बौधायन धर्मसूत्र (1/9/6) में मिलता है।
कुलाल का विवरण वैदिक साहित्य में मिलता है। यह वर्ग मिट्टी के
बर्तन निर्माण द्वारा जीविकोपार्जन करता था। कर्मार (लोहार)
वैदिक साहित्य में वर्णित है। मणिकार आभूषण बनाने का कार्य
करते थे। इषुकार बाण निर्माताओं को कहा गया है। धनुषकार समाज
के लिए धनुष आदि अस्त्र-शस्त्रादि का निर्माण करते थे।
रज्जुसर्ज रस्सी बनाने वाले को कहा गया है। मृगयु शिकार से
आजीविका चलाते थे। भिषज का उल्लेख वैदिक साहित्य में मिलता
है, यह चिकित्सा द्वारा समाज सेवा करता था। गोपाल, गोपालन
तथा अजपाल बकरी पालन का कार्य करते थे। कीनाश कृषि कर्म
द्वारा अपना पालना करता था। सुराकार मदिरा बनाते थे। क्षता रथ
संचालन का कार्य देखता था। दवहिार लकड़ी एकत्र कर आजीविका
चलाता था। वासपल्पुली धोबन को कहा गया है यह समाज के वस्त्र
धोने का कार्य करती थी। रजयित्री कपड़े रंगने वाली रंगरेजन को
कहा गया है। भागदुधराज्य के लिए कर एकत्र करने का कार्य करता
था। धीवर मछली पकड़ने का कार्य करके जीविका चलाता था।
हिरण्यकार सुनार को कहा गया है। वणिक शब्द व्यापारी या बनिया
के लिए प्रयुक्त हुआ है। ग्रामणी गाँव का मुखिया होता था।
वंशनर्तिन शब्द नट के लिए प्रयुक्त हुआ है। हम देखते हैं कि
उपर्युक्त सूची में व्यवसायों की विविध श्रेणियाँ सम्मिलित थीं
जिनमें कुछ उद्योग एवं व्यवसायों से सम्बद्ध थे, जबकि अन्य को
दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु श्रम विभाजन के आधार पर
निर्मित वर्ग माना जा सकता है।
भागदुध, ग्रामणी, क्षता आदि राज्य के अधिकारी थे। कढ़ाई कार्य,
डलिया निर्माण, वस्त्र रंगाई आदि सामान्यतः स्त्रियाँ करती रही
होंगी। तत्कालीन साहित्य में तक्षन् एवं रथकार दो भिन्न वर्गों के
रूप में विवेचित किये गये हैं। अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर तक्षन्
को लकड़ी के आधार, पोत, गाडी, आसन आदि निर्मित करने को कहा
जाता था जबकि रथकार को केवल रथ। इस काल में रथकार के
महत्त्व में अभिवृद्धि हुई। उसके द्वारा श्रौत यज्ञ करने का
उल्लेख मिलता है। रथकार उपनयन भी करवा सकता था। इस तरह
उसे द्विज की श्रेणी में रखा गया।
धातु उद्योग का उत्कर्ष इस युग की महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
आर्य लोग अनेक धातुओं से परिचित थे, जिनमें सोना, चाँदी, लोहा,
तांबा, सीसा आदि उल्लेखनीय हैं। लोहे के लिए श्यामायस् अथवा
कृष्णायस शब्द का प्रयोग होता था। लोहे से लोहकार हल, छुरा,
चाकू, सुई आदि सामग्री बनाते थे। लोहे से ही युद्ध में उपयोग में
आने वाले अस्त्र-शस्त्र का निर्माण किया जाता था। वैदिक
साहित्य से जानकारी मिलती है कि स्वर्ण से कलात्मक आभूषणों का
निर्माण किया जाता था। यज्ञों के अवसर पर स्त्रियाँ विविध
प्रकार के स्वर्णाभूषण धारण करके आती थीं। सीसा को एक स्थान
पर लोहा तथा सोना से भिन्न बताया गया है।
चर्मकार समाज के लिए चमड़े की अनेक उपयोगी वस्तुएँ बनाता था।
स्त्री-पुरुष एवं बच्चे चमड़े से निर्मित सुन्दर जूते (उपानह) पहनते
थे। चमड़े से बने पात्रों में घी, तेल, शहद आदि रखे जाते थे। कुलाल
(कुम्हार) विभिन्न प्रकार के मिट्टी के पात्रों का निर्माण करते थे।
यज्ञ के अवसर पर राजा कुलाल को आमन्त्रित करता था एवं
छोटी-बड़ी ईंटें बनाने के लिए निर्देशित करता था। शतपथ ब्राह्मण
में कुलालचक्र का उल्लेख मिलता है। घडे, मिट्टी के प्याले चाक पर
बनाये जाते थे।
उत्तर वैदिक साहित्य में कपास का उल्लेख नहीं मिलता। यद्यपि
ऊन (ऊणा) शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है, इससे प्रकट होता है
कि ऊनी वस्त्रों का निर्माण विशेष रूप से होता था। अथर्ववेद में
शण (सन) का उल्लेख हुआ है। इससे बोरे, सुतली, रस्सियाँ आदि
बनाई जाती रही होंगी। मैत्रायणी संहिता में क्षोम का उल्लेख हुआ
है। क्षोमवस्त्र धनिक वर्ग में विशेष रूप से प्रयुक्त होते थे। बुनाई
एवं सूत कातने का कार्य प्रायः स्त्रियाँ करती रही होंगी। तैत्तरीय
ब्राह्मण में वेमन् शब्द मिलता है, इनका अभिप्राय करघा से लिया
जाता है। सम्भवतः इसकी सहायता से कपड़ा बुना जाता था। वस्त्रों
पर कढ़ाई का कार्य भी स्त्रियाँ करती रही होंगी।
इस काल में भिषज का व्यवसाय अधिक सम्माननीय नहीं माना जाता
था। दूसरी ओर चिकित्सा के क्षेत्र में तंत्र-मंत्र का महत्त्व बढ़
गया था। अथर्ववेद में एक स्थान पर सर्पदंश के विष को दूर करने
का मंत्र मिलता है। अथर्ववेद में क्षय, कोढ़, पागलपन, गठिया,
नेत्ररोग, नासूर, फोड़ा-फुंसी आदि रोगों का विवरण आया है। समाज
में सपेरों के एक विशिष्ट वर्ग का अस्तित्त्व इस युग में देखा जाता
है।
वाणिज्य-व्यापार - व्यापार एवं वाणिज्य से सम्बद्ध लोगों के
लिए वणिक शब्द का प्रयोग मिलता है। जबकि इस वर्ग के लिए
ऐतरेय ब्राह्मण में श्रेष्ठि शब्द आया है। कदाचित् यह किसी
व्यवसायिक संघ का अध्यक्ष होता था। वाजसेनयी संहिता गण और
गणपति का उल्लेख करती है। यह शब्द भी किसी व्यवसायिक
संगठन की ओर इंगित करता है। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि देश
के व्यापारी एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपनी सामग्री को लेकर
विचरण करते थे। मुख्य रूप से वस्तु विनिमय प्रणाली ही प्रचलित
थी। किन्तु कुछ सिक्कों की भी चर्चा मिलती है। परन्तु ऐसा अनुमान
किया जा सकता है कि वे नियमित सिक्के नहीं थे। सिक्के के रूप में
निष्क, शतमान् और कृष्णल का उपयोग होता था। निष्क और
शतमान्-320 रत्ति का होता था। कृष्णल 1 रत्ति या 1.8 ग्रेन
का होता था। पाद भी संभवतः सिक्का ही था। उत्तर वैदिक काल में
समुद्री यात्रा संभवत: होती थी क्योंकि शतपथ ब्राह्मण में जल
प्रलय की चर्चा है। शतपथ ब्राह्मण में पहली बार सूदखोरी एवं
महाजनी की चर्चा भी की गई है। महाजन को कुसीदिन कहा गया है।
नगर- तैत्तरीय अरण्यक में पहली बार नगर की चर्चा हुई है।
लेकिन उत्तर वैदिक काल के अन्त में हम केवल नगरों का आभास
पाते हैं। अधिक से अधिक हस्तिनापुर और कौशांबी को इस श्रेणी में
रख सकते हैं किन्तु ये भी आद्य नगर (प्रोटो अरबन साइट) ही हैं।
समाज (Society) -- उत्तर वैदिक काल में, सम्पूर्ण भारत में,
जीवन के विभिन्न पक्षों में एक निश्चित दिशा की ओर परिवर्तन
हुए। इस युग में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से एक ऐसे
ढाँचे का आविर्भाव हुआ जो सामान्य परिवर्तनों के साथ लम्बे काल
तक चलता रहा। इस युग की प्रमुख विशेषताएँ थीं- कृषि प्रधान
अर्थव्यवस्था, कबायली संरचना में विघटन, वर्णव्यवस्था का जन्म
और क्षेत्रगत साम्राज्यों का उदय। उत्तर वैदिक काल में आर्यों के
सामाजिक जीवन में स्थायित्व ही नहीं देखा जाता है, बल्कि
पूर्वकाल की तुलना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होते हैं।
आर्य यद्यपि ग्रामों में निवास करते थे, किन्तु इस युग में बड़े-बड़े
नगरों का विकास हुआ। इस काल तक आते-आते वर्ण का अभिप्राय
भी बदला था। शूद्र को सम्मिलित करते हुए चार वर्णों की
परिकल्पना की गई।
समाज का आधार रक्त संबंध था। समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई कुल
था। अब चारों वर्णों के बीच भेद-भाव उत्पन्न होने लगे। सम्बोधन
की दृष्टि से चारों वर्णों के लिए चार शब्द आए हैं। ब्राह्मण के लिए
ऐहि, क्षत्रिय के लिए आगच्छ, वैश्य के लिए आद्रव (जल्दी
आओ) और शूद्र के लिए आधाव (दौड़कर आओ) शब्द प्रयुक्त होते
थे। ऊपर के तीन वर्णों को द्विज की स्थिति प्राप्त हुई। द्विज का
शाब्दिक अर्थ है दुबारा जन्म लेना। तैत्तरीय ब्राह्मण के अनुसार
ब्राह्मण सुत का, क्षत्रिय सन का और वैश्य ऊन का यज्ञोपवीत
धारण करते थे। ब्राह्मणों का उपनयन संस्कार वसन्त में, क्षत्रियों
का ग्रीष्म में और वैश्यों का शीत ऋतु में होता था।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के लिए वर्ण शब्द का प्रयोग
सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। ऋग्वेदकाल में किसी भी
वर्ग का व्यक्ति अपनी इच्छा तथा क्षमता के अनुसार, किसी भी
वर्ण का कार्य अपना सकता था। किन्तु उत्तर वैदिककाल में वर्ण
व्यवस्था में पूर्ववत् लचीलापन नहीं देखा जाता। प्रत्येक वर्ण में
परस्पर पृथकता दर्शाने की दृष्टि से नियम एवं विधान बना दिये
गये थे। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि गायत्री मंत्र का
प्रारम्भ ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य अलग-अलग ढंग से करें।
सामान्यतः शूद्रों को धार्मिक कृत्यों के अधिकार से वंचित रखा
गया। इस प्रकार परवतीं संहिताओं के काल में वर्ण शब्द प्रयोग
निश्चित रूप से जाति के लिए प्रयुक्त हुआ है। इस जाति व्यवस्था
का विकास ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में होता हुआ देखते हैं जिसमें समाज
के चार वर्णों के अस्तित्त्व को विराट पुरुष के विविध अंगों से
सम्बद्ध कर दिया गया जिसकी चर्चा पूर्व में की गई है। उपरोक्त
चार जातियों के अतिरिक्त अन्य जातियों एवं उपजातियों का विकास
अनेक कारणों से सम्भव हुआ। विविध कामगारों की संस्थाओं ने
जातियों के रूप में विकसित होने के लिए प्रेरित किया और किसी एक
जाति द्वारा अपनाया गया व्यवसाय पैतृक बनता गया। इन्हीं पैतृक
व्यवसायों ने धीरे-धीरे एक जाति का स्वरूप ग्रहण कर लिया।
जातियों के विकास के साथ गोत्र परम्परा विकसित हुई जिसके
अन्तर्गत अपने गोत्र से बाहर विवाह करने की परम्परा चल पड़ी।
विवाह अपनी जाति में ही किये जाने लगे किन्तु समान गोत्र में नहीं।
यह परम्परा जाति प्रथा को अधिक कठोर बनाने में सहायक बनी।
अथर्ववेद में व्रात्य शब्द का बहुधा मिलता है जिसका अर्थ होता
था, वह आर्य जो अपनी धर्मनिष्ठा से च्युत हो चुका है और
जिसकी वेदों पर कोई श्रद्धा नहीं रही है। व्रात्य लोग खेती नहीं
करते थे।
ब्राह्मण - प्रारंभ में 16 पुरोहितों में ब्राह्मण भी एक पुरोहित था
किन्तु कालान्तर में यज्ञ की विधि द्वारा उसने समाज में प्रतिष्ठा
स्थापित कर ली। ब्राह्मण को वैदिक ग्रंथों में अदायी (दान लेने
वाला) और सोमपायी (भ्रमण करने वाला) कहा गया है। ब्राह्मण
अपना राजा सोम को मानते थे। ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य
संहिताओं के विवरण से ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं
वैश्यों के कर्त्तव्यों में विभाजक रेखायें स्पष्ट हो गई थीं। तैत्तरीय
संहिता में विवेचन मिलता है कि ब्राह्मण ऐसे देवता हैं जिन्हें हम
प्रत्यक्ष देख सकते हैं। देवता के दो प्रकार उसे अन्य को प्रदान
करते हैं अत: मानव देवता हैं; ऐतरेय ब्राह्मण में आया है कि जब
वरुण से कहा गया कि राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र के स्थान पर
ब्राह्मण पुत्र की बलि दी जायेगी। तो वरुण ने कहा कि ब्राह्मण तो
क्षत्रिय से उत्तम समझा ही जाता है। ब्राह्मण को दिव्यवर्ण का
कहा गया और उसमें समस्त देवताओं का निवास माना गया। शतपथ
ब्राह्मण के अनुसार, ब्राह्मणों के चार विलक्षण गुण है- ब्राह्मण
(ब्राह्मण के रूप में पवित्र पैतृकता), प्रतिरूपचय (पवित्राचरण),
यश (महत्ता) एवं लोकपक्ति (लोगों को पढ़ाना या पूर्ण करना)।
जन सामान्य द्वारा ब्राह्मण से ज्ञान अर्जित किये जाने पर उसे
चार विशेषाधिकार मिलते थे-अर्चा (आदर), दान, अज्येयता (कोई
कष्ट न देना) एवं अवध्यता। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार- राजा पर
निर्भर होने पर भी ब्राह्मण राजा से श्रेष्ठ हैं।
वाजसनेयी संहिता में ब्राह्मणों को राजा से उत्तम कहा गया है।
अथर्ववेद में कहा गया है कि समाज में ब्राह्मण को कष्ट मिलने पर
जल में टूटी हुई नाव की तरह राजा नष्ट हो जाता है। अत: शतपथ
ब्राह्मण भी राजा की शक्ति का आधार ब्राह्मण को ही मानता है।
किन्तु दूसरी ओर काठक संहिता में ब्राह्मण के ऊपर क्षत्रिय की
श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है और ऐतरेय ब्राह्मण में भी एक
स्थान पर ब्राह्मण को क्षत्रिय से नीचा कहा गया है।
क्षत्रिय - इसका शाब्दिक अर्थ होता है क्षेत्र पर अधिकार करने
वाला। वैदिक काल में लोहे के युद्धास्त्रों के कारण क्षत्रियों की
प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। समाज की सुरक्षा का अधिभार क्षत्रिय पर
था। ब्राह्मण और क्षत्रिय के आपसी प्रतिस्पर्द्धा थी। शतपथ
ब्राह्मण में एक जगह पर क्षत्रिय को ब्राह्मण श्रेष्ठ बताया गया
है। इसी प्रतिस्पर्द्धा के कारण कुछ क्षत्रिय विद्वान् दार्शनिक
राजा बन गए। उपनिषद् काल में श्वेतकेतु आरूणि ने प्रवाहण जैबली
से शिक्षा पाई थी।
इस काल में राजपद को नई शक्ति एवं अधिकार मिलने के फलस्वरूप
क्षत्रिय वर्ण को नया स्वरूप प्राप्त होता है। राजा को सभी वर्गों
से श्रेष्ठ माना गया। इस युग में राजा को ब्राह्मण को निष्कासित
करने, वैश्य से कर वसूल करने तथा शूद्र को दण्डित करने के
अधिकार प्राप्त थे। राजन्य वर्ग में यह धारणा बन गई थी कि
वाजपेय, राजसूय आदि यज्ञों के माध्यम से राजा की महिमा में
अभिवृद्धि होती है और इन यज्ञों का सम्पादन ब्राह्मण पुरोहितों
द्वारा किया जाता था। जब राजा को राज्याभिषेक के अवसर पर
मुकुट पहनाया जाता था तो यह समझा जाता था कि यह एक सबका
अधिपति एवं ब्राह्मणों तथा धर्म की रक्षा करने वाला उत्पन्न
किया गया है। क्षत्रिय को कोई कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व
ब्राह्मण के पास जाना चाहिए, ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के सहयोग
से यश मिलता है। एक ब्राह्मण बिना राजा के रह सकता है, किन्तु
एक राजा बिना पुरोहित के नहीं रह सकता। यहाँ तक कि देवताओं के
लिए भी पुरोहित की आवश्यकता मानी गई। त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप
देवताओं के पुरोहित थे। शतपथ ब्राह्मण में अन्य राजा के समक्ष
बलशाली होने के लिए, राजा को ब्राह्मण के प्रति नम्रता पूर्ण
व्यवहार करने का निर्देश मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख
मिलता है कि यदि राजा ब्राह्मण के निर्देशन में कार्य करता है तो
राष्ट्र समृद्ध बनता है। इससे परिलक्षित होता है कि तत्कालीन
सामाजिक एवं राजनैतिक परिवेश में ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के
मध्य एक घनिष्ठ सम्बन्ध की परिकल्पना की गई एवं राष्ट्र के
लिए दोनों के एकत्व पर जोर दिया गया।
वैश्य - उत्तर वैदिक काल में ब्राह्मण एवं राजन्य वर्ग की तुलना
में वैश्य वर्ग की सामाजिक स्थिति निम्नतर देखी जाती है। ऐतरेय
ब्राह्मण में उसे अनस्य बलिकृत कहा है। याजक क्रियाओं में भी
वैश्यवर्ग का सहयोग अपेक्षित माना गया था। कहा गया है कि जब
देवता लोग पराजित हुए तो वे वैश्य की दशा को प्राप्त हो गये।
राजा के लिए विशमत्ता अथवा विश का भक्षक पद उनकी निम्न
स्थिति को इंगित करता है। मनुष्यों में वैश्य तथा पशुओं में गायें
अन्य लोगों के उपभोग की वस्तुएँ कही गई हैं। आर्थिक दृष्टि से यह
वर्ग सम्पन्न था क्योंकि व्यवसायों पर इस वर्ग का आधिपत्य
था। फलस्वरूप इसे अन्य दो वर्णों के समकक्ष ही रखा जाता था।
मुख्यतः यह वर्ण कृषि कार्य, पशुपालन, विविध उद्योग एवं
वाणिज्य व्यापार में संलग्न था। बहुसंख्यक पशुओं का स्वामी होना
विशेष गर्व की बात मानी जाती थी। वैश्य को न केवल यज्ञादि
कर्म करने का अधिकार प्राप्त था, बल्कि उपनयन एवं वैदिक
शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार भी थे। ऐतरेय ब्राह्मण में यह
प्रसंग मिलता है कि वैश्य अन्य लोगों के लिए अन्न उत्पादित करते
थे एवं कर देते थे। स्पष्ट है कि वैश्य अन्य दोनों उच्च वर्णों की
तुलना में संख्या में अधिक थे एवं कृषि, पशुपालन एवं व्यापार करते
थे। वे ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों से दूर रहते थे और उनकी आज्ञा
पालन करते थे।
शूद्र - ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में पहली बार शूद्रों
की चर्चा हुई। इन्हें अन्य का मृत्य कहा जाता था, अर्थात् तीनों
वर्णों का सेवक। शतपथ ब्राह्मण में शूद्रों द्वारा सोम यज्ञ में
भाग लेने की बात की गई है। मैत्रायिणी संहिता में धनी शूद्रों का
जिक्र है। उनकी स्थिति अभी उतनी गिरी नहीं थी क्योंकि
राज्याभिषेक के समय शूद्र भी हिस्सा लेते थे। छुआछूत की
अवधारणा अभी विकसित नहीं हुई थी। विभिन्न शिल्पियों में रथकार
की स्थिति संभवत: अच्छी थी। उन्हें उपनयन का अधिकार था।
बच्चे, विधवा स्त्री एवं संन्यासी वर्ण व्यवस्था से बाहर थे।
समाज में परिचारक के कार्य करने वाले शूद्रों का स्थान चौथा था।
विद्वानों की धारणा है कि शूद्रों में दास तथा ऐसे व्यक्ति हो सकते
थे जिनका जन्म आर्यों एवं दासों के मिश्रण से हुआ था। चौथे वर्ण
में मिश्रण एवं अवश्यंभावी था और इसकी व्याख्या वर्ण संकरत्व
के मूल रूप में की परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि चौथे वर्ण का
आधार जाति एवं व्यवसाय दोनों थे। धर्म सूत्रों में शूद्रों को काले
वर्ण का कहा गया है। तैत्तिरीय संहिता में शूद्रों को यज्ञाधिकार
से वंचित किया गया है। उत्तर वैदिक काल में शूद्र वर्ण में दो
प्रकार की जातियों का आविर्भाव हुआ। कुछ व्यवसाय सम्बन्धी
जातियाँ थीं जो व्यवस्थित एवं धनी थीं। दूसरी अन्त्यज जातियाँ
थीं जिनका समाज में अति निम्न स्थान था।
चाण्डाल - उत्तर वैदिक साहित्य (लगभग 1000-600 ई.पू.) में
चांडाल का उल्लेख छ: स्थलों पर हुआ है। इसका सबसे पहले
उल्लेख वाजसनेयी संहिता के एक उत्तरवर्ती अंश में पुरुषमेध
(प्रतीकात्मक मानव बलि) की एक सौ चौरासी बोलियों के बीच हुआ
है और उसे वायुदेव को अर्पित बताया गया है। लगता है, इस दौर में
वह उन देशी जातियों में एक था जिनसे आर्यों का परिचय था और
ये जनजातियाँ अप्रवासी आर्य बस्तियों की सीमाओं पर रहती थीं
तथा आर्यों के साथ इनके पचने-खपने और आर्य संस्कृति में रंगने
की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी। निषाद, पर्णक, किरात और
पौल्कस इस प्रकार की अन्य जातियाँ थी। ब्राह्मण, राजन्य,
वैश्य, शूद्र तथा कई अन्यों के साथ पुरुषमेध में, चंडाल के उल्लेख
से, उसके अशौच का कोई संकेत नहीं मिलता। प्राचीन भारत में किसी
को अपना उच्छिष्ट देने के बड़े कठोर नियम थे और चंडाल को
सामान्यतः उसके लिए अनर्ह अर्थात् अयोग्य समझा जाता था,
किन्तु अग्निहोत्र करने वालों को इसका अपवाद रखा गया था।
गोत्र - गोत्र की अवधारणा पहली बार उत्तर वैदिक काल में आयी।
गोत्र का शाब्दिक अर्थ गोष्ठ अर्थात् वह स्थान, जहाँ पूरे गोत्र
का गोधन रखा जाता था। परन्तु गोत्र का यह अर्थ कुछ समय के
बाद बदल गया। अब एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न व्यक्ति एक गोत्र
के कहे जाने लगे। प्रारंभ में गोत्र की अवधारणा ब्राह्मणों के लिए
थी। ब्राह्मणों के द्वारा ही क्षत्रिय और वैश्य को गोत्र प्रदान
किये गये। मौलिक रूप में सात गोत्र हैं जो ऋषियों के नाम पर हैं।
यथा, कश्यप, वशिष्ठ, भृगु, गौतम, भारद्वाज अत्रि, तथा
विश्वामित्र। आठवां गोत्र अगस्त्य ऋषि का माना जाता है। वे
अनायों के ऋषि भी माने जाते हैं।
प्रवर - आगे चलकर केवल एक मूल पुरुष से उत्पन्न व्यक्ति की ही
गणना नहीं की जाती थी, वरन् उस मूल पुरुष के पूर्वजों को भी ध्यान
में रखा जाता था। सपिंड, सगोत्र आदि शब्दों पर विचार सूत्रकाल
में होने लगा और इसी के साथ गोत्र बर्हिगमन की परिकल्पना आई।
इसलिए विवाह में इसका ध्यान रखा जाता था।
गृह (परिवार) – परिवार का मुखिया सर्वश्रेष्ठ होता था। उत्तर
वैदिक काल में परिवार के मुखिया के अधिकारों में वृद्धि हुई।
उदाहरण के लिए ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, अजीगत ने अपने पुत्र
सुन: शेप को 100 गायों के बदले बेच दिया। विश्वामित्र ने आज्ञा
का उल्लंघन करने पर अपने 50 पुत्रों को घर से बाहर कर दिया।
वैसे संपत्ति पर पुत्रों का अधिकार होता था। पर हम देखते हैं कि
पिता के अधिकारों पर नियंत्रण की प्रक्रिया भी इस काल में शुरू हो
गई थी। जैमिनीय ब्राह्मण से ज्ञात होता है कि पिता की
वृद्धावस्था में सम्पत्ति के बंटवारे की मांग की गई। ऐतरेय ब्राह्मण
से जानकारी मिलती है कि मनु के पुत्रों ने अपने पिता की सम्पत्ति
का जीवितावस्था में ही विभाजन कर लिया था। इससे परिलक्षित
होता है कि संयुक्त परिवार व्यवस्था के स्वरूप में बदलाव आने लगा
था।
नारी की स्थिति - पूर्व काल के समान इस युग में भी स्त्रियों को
समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था किन्तु हम परवर्तीकालीन
हीन स्थिति का आरम्भ इस काल में होता हुआ देखते हैं। इसके लिए
निन्दनीय शब्दों का प्रयोग किया जाने लगा, शतपथ ब्राह्मण में
उसे असत्यभाषी और अनृत कहा गया। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्रियों
को दुख का कारण माना गया है। मैत्रायिणी संहिता में स्त्रियों की
तुलना मदिरा एवं पाशा से की गई है। यज्ञ एवं अनुष्ठानादि के
अवसर पर सोम पान से वंचित किये जाने का उल्लेख भी आया है,
यह तथ्य समाज में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट का प्रतीक माना
जा सकता है। अथर्ववेद में पुत्री के जन्म पर खिन्नता का उल्लेख
हुआ है। पितृसत्तात्मक समाज में, पुत्र का विशेष महत्त्व होना,
स्वाभाविक तथ्य था। तथापि इस युग में भी स्त्रियों की शिक्षा पर
विशेष बल दिया जाता था। कन्याओं की शिक्षा प्राप्त कर लेने के
बाद ही विवाह के योग्य माना जाता था।
स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है जिन्हें ब्रह्मवादिनी की संज्ञा दी
जाती थी। वैदिक युग में छात्राओं के दो वर्ग कहे गये हैं-सद्योवधू
एवं ब्रह्मवादिनी। सद्योवधू वे छात्राएँ थीं जो विवाह से पूर्व वेद
मंत्रों एवं याजक प्रार्थनाओं का ज्ञान प्राप्त कर लेती थीं तथा
ब्रह्मवादिनी आजीवन वैदिक शिक्षा में व्यतीत करती थीं। ऋषि
कुशध्वज की पुत्री वेदवती ऐसी ही ब्रह्मवादिनी स्त्री थी।
याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी से विवाह के उपरान्त भी
आध्यात्मिक जिज्ञासा होना, तत्कालीन उच्चस्तरीय स्त्री शिक्षा
का अनुपम उदाहरण माना जा सकता है। मैत्रेयी ने कात्यायनी के
पक्ष में अपनी सम्पत्ति का अधिकार त्याग कर एक मात्र ज्ञान
दान की याचना की थी। वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य एवं
गार्गी की कथा है। इसके अनुसार याज्ञवल्क्य गार्गी को वाद-
विवाद में डांटकर चुप करा देते हैं। फिर भी सूत्र काल की तुलना में
स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। मैत्रेयी एवं गार्गी परम विदुषी
महिलाएँ थीं। इतना ही नहीं, स्त्रियाँ ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन
करते हुए शिक्षा ग्रहण करती थीं। यजुर्वेद में शिक्षित स्त्री एवं
पुरुष के विवाह को ही उपयुक्त माना गया है। अथर्ववेद के अनुसार
स्त्री के चार पति हैं- (1) सोम, (2) अग्नि, (3) गंधर्व तथा (4)
वास्तविक पति। इसका सांकेतिक महत्त्व है अर्थात् यह स्त्रियों की
शारीरिक एवं सांस्कृतिक विकास की चार अवस्थाएँ हैं। वृहदारण्यक
उपनिषद् में विदुषी पुत्री के जन्म की कामना करने वाले व्यक्ति के
लिए एक विशेष धार्मिक अनुष्ठान की व्यवस्था मिलती है। जनक
की राजसभा में होने वाले शास्त्रार्थ में गार्गी ने अपनी अद्भुत तर्क
शक्ति से याज्ञवल्क्य जैसे विद्वान् महर्षि को भी प्रभावित किया
था। सामवेद के मंत्रों के गान में स्त्रियाँ विशेष रुचि रखती थीं। यह
उनकी गान विद्या में अभिरुचि के साथ वैदिक मंत्रों के विधिवत् एवं
विशुद्ध उच्चारण को भी इंगित करती है। स्त्रियाँ विवाह के बाद
पुरुष की सहचारिणी बनती थीं, विवाह प्रक्रिया द्वारा अनेक
धार्मिक अधिकार तथा सामाजिक स्वतन्त्रता मिलती थी। किन्तु
पति-पत्नी के व्यवहार में पति की श्रेष्ठता को स्वीकार किया जाता
था। पति के भोजन के पश्चात् पत्नी को भोजन करने के निर्देश
तत्कालीन साहित्य में मिलते हैं। इतना ही नहीं पत्नी के शरीर पर
पति के अधिकार की चर्चा भी मिलती है।
विवाह - विवाह एक आवश्यक कर्त्तव्य था। अविवाहित व्यक्ति
यज्ञ नहीं कर सकता था। संभवत: पुरुषों में बहुविवाह का प्रचलन
था क्योंकि हरिश्चन्द्र की 100 पत्नियां थीं। ऐतेरेय ब्राह्मण में
ऐसा कहा गया है कि एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ हो सकती हैं,
परन्तु एक स्त्री के अनेक पुरुष नहीं हो सकते थे। विधवा विवाह का
प्रचलन था। तैतरीय संहिता में विधवा के पुत्र को दधिसत्य कहा
जाता था। अंतर्जातीय विवाह का भी प्रचलन था। तैतरीय संहिता में
आर्य पुरुष एवं शूद्र नारी के बीच वैवाहिक संबंधों की चर्चा है।
शतपथ ब्राह्मण में ऋषि च्यवन और राजा शरीयात की पुत्री
सुकन्या के बीच वैवाहिक संबंधों की चर्चा है। राजा की प्रधान रानी
महिषी कहलाती थी। अन्य नारियों (रानियों) को परिव्रीति कहा
जाता था, जो उपेक्षित रहती थी।
आहार - इस काल में मांस भक्षण एवं सुरा पान को नीची निगाह से
देखा जाता था। अथर्ववेद के एक सूत्र में ऐसे आहार को गलत माना
गया है।
आमोद-प्रमोद - विभिन्न स्थानों पर सैलुश (अभिनेता) की चर्चा
है। बड़े-बड़े उत्सवों पर वीणा-गथिन (वीणा बजाने वाले) उपस्थित
होते थे। सौ तन्तु के वाद्य यंत्र को सततंतु कहा जाता था।
शिक्षा -- वैदिक साहित्य का अपार भण्डार इस तथ्य का द्योतक
है कि प्राचीन काल में शिक्षा की सुनियोजित व्यवस्था थी। उत्तर
वैदिक काल को बौद्धिक विकास का युग कहा जाये, तो अतिशयोक्ति
नहीं होगी, क्योंकि इसी काल में विशाल वैदिक साहित्य का सृजन
हुआ, जिसका आधार था, उपनयन संस्कार के द्वारा विद्यार्थी
जीवन के साथ ही सुनियोजित शिक्षा प्रणाली का प्रारम्भ। वैदिक
शिक्षा पद्धति का प्रधान आधार था शिक्षक, जिसे आचार्य या
गुरु कहा जाता था। प्राचीन काल में शिक्षा का अभिप्राय केवल
पुस्तकीय ज्ञान न होकर अन्तर्दृष्टि का विकास भी कहा गया है,
ऐसी अन्तर्दृष्टि का विकास जिससे मोक्ष प्राप्त हो सके। प्रारम्भ
में पिता से ही पुत्र को शिक्षा मिलती थी, जैसा कि हमें वृहदारण्यक
उपनिषद् के श्वेतकेतु आरुणेय आख्यान से ज्ञात होता है। गुरुकुल
प्रणाली प्राचीन भारतीय शिक्षा की प्रमुख विशेषता थी जिसके
अन्तर्गत विद्यार्थी को अन्तेवासी अर्थात् आचार्य के सान्निध्य
में रहना (आश्रम में) होता था। इस दौरान विद्यार्थी का प्रमुख
कार्य गुरु के पास रहकर गुरु की सेवा तथा अध्ययन करना था।
प्रत्येक शिष्य का स्तर आश्रम में समान था, सबको समान रूप से
जलाने की लकड़ियाँ (समिधायें) एकत्र करना, गौचारण तथा
भिक्षाटन करना होता था। इस प्रक्रिया से विद्यार्थियों में छोटे-
बड़े की भावना का विकास नहीं हो पाता था।
वैदिक काल में अध्ययन का साहित्य बहुत विशाल था। शतपथ
ब्राह्मण ने स्वाध्याय के अन्तर्गत ऋचाओं, यजुष, साम एवं
अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, गाथाओं का उल्लेख किया है। गोपथ
ब्राह्मण में सभी वेद, कल्प, रहस्य, ब्राह्मण, उपनिषद्, इतिहास,
अन्वाख्यान, पुराण, अनुशासन आदि अध्ययन योग्य साहित्य कहा
गया हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में एक विवरण मिलता है जिसमें नारद
सनत्कुमार से कहते हैं कि- उन्होंने (नारद ने) चारों वेद, इतिहास,
पुराण (पंचम वेद रूप) व्याकरण, राशि (अंकगणित), दैव (लक्षण
विद्या), निधि (खनिज उत्खनन विद्या), एकायन (राजनीति),
देवविद्या (निरुक्त) ब्रह्मविद्या (छन्द एवं ध्वनि विद्या), क्षत्र
विद्या (धनुर्वेद), नक्षत्र विद्या, सर्प विद्या एवं देवजन विद्या
(गान एवं नृत्य) सीख ली थी। इससे प्रतीत होता है कि उस युग में
इन विषयों की शिक्षा दी जाती थी।
ध्यातव्य है कि आश्रमों में विशेष रूप से ब्रह्मविद्या सीखने का
अवसर मिलता था जिससे शिष्य का आत्मिक विकास एवं नैतिक
उत्थान होता था। यही भारतीय शिक्षा पद्धति की रीढ़ थी। इसी
परिप्रेक्ष्य में विशाल वैदिक साहित्य का सृजन सम्भव हुआ।
उत्तर वैदिक धर्म -- उत्तर वैदिक काल के प्रारंभ में भी धर्म का
वही उद्देश्य था जो ऋग्वैदिक काल में रहा। वह था- भौतिक सुखों
की प्राप्ति। परन्तु उत्तर वैदिक काल में जीवन में स्थायित्व आने
से उनके चिन्तन में अभूतपूर्व दर्शन का आविर्भाव हुआ। इस युग
का दार्शनिक चिन्तन उपनिषद् नामक ग्रन्थों में संग्रहित है। वेदों के
अंत में निबद्ध होने के कारण उपनिषद् वेदान्त के नाम से प्रसिद्ध
हुए। इस काल में इन्द्र और वरूण की प्रतिष्ठा कम हो गई। प्रमुख
देवता के रूप में अब प्रजापति स्थापित हो गए। प्रजापति को
हिरण्य गर्भ भी कहा जाता था। विष्णु और रूद्र भी अब
महत्त्वपूर्ण देवता हो गए। इस तरह गुप्ताकाल में जो ब्रह्मा, विष्णु
एवं महेश की परिकल्पना विकसित हुई, इसका बीज यहीं तैयार हो
गया। पूषण अब शूद्रों के देवता के रूप में स्थापित हो गए।
अथर्ववेद में धर्म की चर्चा भी मिलती है, जब इंद्र को नागों एवं
राक्षसों का वध करने वाला कहा गया है। अश्विन को अब कृषि की
रक्षा करने वाला देवता मान लिया गया है। उसी तरह सवितृ को नए
मकान बनाने वाले देवता के रूप में ख्याति मिली।
उपासना की विधि - उत्तर वैदिक काल में प्रार्थना की जगह यज्ञ
महत्त्वपूर्ण हो गया। यज्ञ में बहुत बड़ी संख्या में पशुओं की बलि
दी जाती थी। यजुर्वेद में 10,800 से चिड़ियों के आकार को एक
वेदी बनाने का उल्लेख है। अब यज्ञ के साथ कर्मकांड की पद्धति
विकसित हो गई। अब शब्दों की जादुई शक्ति पर विश्वास किया
जाने लगा। इस प्रकार की अवधारणा विकसित हुई कि मंत्रोच्चारण
में किसी प्रकार की अशुद्धि होने से अनिष्ट हो सकता था। चूंकि
सही मंत्रोच्चारण ब्राह्मण ही जानते हैं, इसलिए ब्राह्मण
महत्त्वपूर्ण हैं। इतना ही नहीं यह भी माना गया कि पृथ्वी का
निर्माण भी यज्ञ की प्रक्रिया से ही हुआ है और स्वयं प्रजापति
भी इसी यज्ञ के अधीन हैं। चूंकि यज्ञ की विधि केवल ब्राह्मण ही
जानते हैं, अत: कुछ बातों में ब्राह्मण देवता से भी अधिक
शक्तिशाली हैं।
एक तरफ कृषि संस्कृति का भी विकास हो रहा था, अत: बहुत बड़ी
संख्या में पशुओं की आवश्यकता थी। आर्यों का प्रभुत्व गंगा-
यमुना दोआब में स्थापित हो चुका था। अत: वैदिक यज्ञ पद्धति के
विरुद्ध प्रतिक्रिया शुरू हुई। इस दृष्टि से प्रथम धर्म सुधारक ऋषि
दीर्घटतमस को माना जा सकता है। उन्होंने यज्ञ का विरोध किया।
ब्राह्मण की परंपरा से हटकर अरण्यक ने यज्ञ के बदले तप
(तपस्या) पर बल दिया। ऋग्वैदिक धर्म की आशावादिता अब लुप्त
हो गई थी। और पुनर्जन्म की अवधारणा पहली बार वृहदारण्यक
उपनिषद् में आई। उपनिषद् में मोक्ष की परिकल्पना रखी गई और
इसके लिए ज्ञान पर बल दिया गया। ज्ञान हासिल होने के बाद
आत्मा और परमात्मा का एकीकरण संभव था।
वर्ण एवं जाति -- वर्ण मौलिक रूप में एक आर्थिक व्यवस्था थी
या सामाजिक व्यवस्था ? मौलिक रूप में यह सामाजिक व्यवस्था
थी। हालाँकि यह आर्थिक कारणों से भी प्रभावित थी।
वर्ण और जाति में अन्तर - जब वर्ण का आधार जन्ममूलक हो
गया, तब उसने जाति का रूप ले लिया।
आश्रम व्यवस्था -- उत्तर वैदिक काल में केवल तीन आश्रम
(ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ) ही प्रचलित थे। बुद्ध काल
(सूत्र काल) में आकर आश्रम व्यवस्था स्थापित हो गई। जैबलि
उपनिषद् में चारों आश्रमों की प्रथम बार चर्चा हुई है। आश्रम
व्यवस्था आर्यों की विकसित सोच को प्रकट करती है। इसके
द्वारा व्यक्तिगत उद्यम एवं सामाजिक नियंत्रण के बीच संतुलन
स्थापित करने की कोशिश की गई। यह प्रवृत्ति एवं निवृत्ति मार्ग
के बीच एक प्रकार का संतुलन था। इसके उद्देश्य थे–
देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण एवं मानव जाति के ऋण से मुक्त
होना।
जीवन के चार पुरुषार्थ अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति थे।
एक आर्य का जीवन 100 वर्षों का माना जाता था। इसे चार भागों
में विभाजित किया गया।
ब्रह्मचर्य - उपनयन संस्कार के बाद बालक ब्रह्मचर्य आश्रम को
ग्रहण करता था। फिर विद्याध्ययन के लिए गुरुकुल जाता था।
अश्वलायन् के अनुसार, उपनयन संस्कार की उम्र ब्राह्मण के लिए
8 वर्ष, क्षत्रिय के लिए 11 वर्ष और वैश्य के लिए 12 वर्ष
होती थी।
गृहस्थ आश्रम - समावर्तन संस्कार (शिक्षा की समाप्ति) के बाद
बालक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था और फिर पंच महायज्ञ,
हविर्यज्ञ एवं सोम यज्ञ का काम पूरा करता था। शूद्र वर्ण केवल
गृहस्थ आश्रम को अपनाता था। सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम
महत्त्वपूर्ण था। गौतम एवं बौधायन का मत है कि वास्तव में एक
ही आश्रम है और वह है गृहस्थ आश्रम।
वानप्रस्थ आश्रम - इस आश्रम में एक आर्य अपनी बस्ती से दूर
रहकर मनन और चिंतन करता था।
सन्यास आश्रम - इस आश्रम में व्यक्ति जीवन की सक्रिय
गतिविधि से दूर रहता था और मृत्यु से पहले उसके लिए अपनी मनः
स्थिति तैयार करता था। चारों पुरुषार्थ में सबसे महत्त्वपूर्ण
पुरुषार्थ धर्म था।
संस्कार - माना जाता है कि संस्कार से आदमी को पूर्णता मिलती
है। संस्कार विशेषत: द्विज जातियों के लिए अर्थ रखते थे। शूद्रों
के कुछ संस्कार अवश्य होते थे परन्तु उनकी क्रियाएँ मंत्रहीन थीं।
स्त्रियों के भी संस्कार होते थे, परन्तु वे संस्कार जातकर्म एवं
चुड़ाकर्म संस्कार तक मंत्रहीन होते थे, किन्तु विवाह संस्कार में
मंत्र का उपयोग किया जाता था। सूत्रकार गौतम ने 40 संस्कार
बताये है। किन्तु अधिकांश स्मृतिकार संस्कारों की संख्या 16 बताते
हैं, जो निम्नलिखित है-
गर्भाधान - यह गर्भ धारण का द्योतक था।
पुंसवन - पुत्र प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण।
सीमन्तोन्नयन - गर्भ की रक्षा करना। तीसरे महीने से 8वें महीने
के बीच इस संस्कार को पूरा किया जाता था। गर्भधारी महिला की
विशेष प्रसन्नता के लिए उसे सजाया-सँवारा जाता था।
जातकर्म संस्कार - इस अवसर पर पिता बच्चे को धृत और शहद
देता था। जन्म के तत्काल बाद यह संस्कार होता था।
नामकरण - इस संस्कार में बच्चे का नाम रखा जाता है।
याज्ञवल्क्य के अनुसार, जन्म के 11वें दिन यह संस्कार होता था।
मनु के अनुसार, जन्म के 10वें दिन यह संस्कार पूरा किया जाता
था।
निष्क्रमण - बच्चे को पहली बार बाहर निकाला जाता था। यह
जन्म के चौथे सप्ताह में होता था।
अन्नप्राशन - यह छठे महीने में होता था। इसमें बढ़ते बच्चे को
अन्न खिलाया जाता था।
कर्णछेद - जन्म के छठे-सातवें महीने में यह संस्कार पूरा किया
जाता था।
चूड़ाकर्म - तीन वर्ष की अवस्था में बच्चे का मुंडन होता था।
विद्यारम्भ संस्कार - सन्तान की अवस्था जब पाँच वर्ष की होती
थी तब उसे शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाती थी। इसे
विद्यारम्भ कहा जाता है।
उपनयन संस्कार - इसकी उम्र ब्राह्मण के लिए 8 वर्ष, क्षत्रिय
के लिए 11 वर्ष एवं वैश्य के लिए 12 वर्ष निर्धारित की गई।
वेदारम्भ संस्कार - इसमें बच्चा पहली बार गुरु के नियंत्रण में
जाकर वेद का अध्ययन प्रारम्भ करता था।
केशान्त -16 वर्ष की आयु में पहली बार छात्र की दाढ़ी-मँछ
बनवायी जाती थी।
समावर्तन संस्कार - अध्ययन की समाप्ति के पश्चात्।
विवाह संस्कार
अंत्येष्टि संस्कार
पंच महायज्ञ- इसका महत्त्व देखते हुए गौतम ने इसे भी संस्कार
ही माना है-
ब्रह्म यज्ञ
देव यज्ञ-देवताओं के प्रति कृतज्ञता
पितृ यज्ञ-पितरो के प्रति तर्पण
मनुष्य यज्ञ- अतिथि संस्कार
भूतयज्ञ-बलि- समस्त जीवों के प्रति कृतज्ञता।
हविर्यज्ञ - इसके सात प्रकार थे-
1. अग्न्याध्येय, 2. अग्निहोत्र, 3. दर्शपौर्णमास, 4. अग्रहायन,
5. चतुर्मास्य, 6. निरूपशुबन्ध, 7. सौत्रामणि।
सोम यज्ञ- इसकी भी संख्या सात थी, जो निम्नलिखित है-
1. अग्निष्टोम, 2. ज्योतिष्टोम, 3. अत्यअग्निष्टोम, 4. उक्थ्य,
5. षाड्शित, 6. अतिरात्र, 7. आएतोरयार्म। यज्ञ के अतिरिक्त
दान भी महत्त्वपूर्ण था। दानों के भी कई प्रकार थे, यथा– (1)
सामान्य दान-सामाजिक कर्तव्य के लिए, (2) धर्म दान-धार्मिक
उद्देश्य के लिए, (3) विशिष्ट दान-इनमें विशिष्ट वस्तुओं का वृहत
पैमाने पर किया जाने वाला दान जैसे-गो दान, अश्व दान, भूमिदान,
तुलादान आदि शामिल था, (4) महादान-इसमें स्वर्ण, घोड़ा, भूमि,
सब दिए जाते थे।