Tuesday, 9 October 2018

पटना कलम शैली

# पटना_कलम_शैली :-
# पटना_कलम ’या # इंडो_ब्रिटिश_शैली ’ का विकास भारत की लघु चित्रकला शैली और ब्रिटिश शैली के संयोग से अंग्रेजों के संरक्षण में हुआ। इसमें व्यक्ति चित्रों की प्रधानता थी और इस शैली में उकेरे गये चित्र आम जीवन की त्रासदियों के बीच से उभरते थे।
पटना कलम शैली स्वतंत्र रूप से दुनिया की पहली ऐसी कला शैली थी जिसने आम लोगों और उनकी जिंदगी को कैनवस पर जगह दी। # वाटर_कलर पर आधारित इस शैली की शुरुआत करीब 1760 के आसपास मुगल दरबार और ब्रिटिश दरबार में होती है। मुगल बादशाह अकबर के दरबार के दो कलाकारों # नोहर और # मनोहर ने इसकी शुरुआत की थी। बाद में उनके शिष्य पटना में आकर इस शैली में कई प्रयोग किये और आम लोगों की जीवनशैली पर कलाकृतियां बनाईं। इस शैली का तेजी से विकास हुआ और चारों ओर इसकी प्रसिद्धि फैल गई। मध्य अठारहवीं शताब्दी में चित्रकला के तीन स्कूल थे – मुगल, आग्लो-इंडियन और पहाड़ी। लेकिन पटना कलम ने इन सबके बीच तेजी से जगह बना ली। यही शैली बाद में इंडो-ब्रिटिश शैली के नाम से जानी जाने लगी।
मुगल साम्राज्य के पतन की अवस्था में शाही दरबार में कलाकारों को प्रश्रय नहीं मिल पाता था। इस कारण इनका पलायन अन्य क्षेत्रों में होने लगा था। इसी क्रम में 1760 के लगभग पलायित चित्रकार तत्कालीन राजधानी ‘पाटलिपुत्र वापस आ गये। इन पलायित चित्रकारों ने राजधानी के लोदी कटरा, मुगलपुरा दीवान मोहल्ला, मच्छरहट्टा तथा नित्यानंद का कुंआ क्षेत्र में तथा कुछ अन्य चित्रकारों ने आरा तथा दानापुर में बसकर चित्रकला के क्षेत्रीय रूप को विकसित किया। यह चित्रकला शैली ही ‘पटना कलम’ या ‘पटना शैली’ कही जाती है। पटना कलम के चित्र लघु चित्रों की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें अधिकतर # कागज और कहीं-कहीं
# हाथी_दांत पर बनाया गया है।
सामान्यत: इस शैली में चित्रकारों ने व्यक्ति विशेष, पर्व-त्योहार, उत्सव तथा जीव-जन्तुओं को महत्व दिया। इस शैली में ब्रश से ही तस्वीर बनाने और रंगने का काम किया गया है। अधिकांशत: # गहरे_भूरे , # गहरे_लाल ,
# हल्का_पीला और # गहरे_नीले रंगों का प्रयोग किया गया है। इस शैली के प्रमुख चित्रकार # सेवक_राम ,
# हुलास_लाल , # जयराम , # शिवदयाल_लाल आदि हैं। चूंकि इस शैली के अधिकांश चित्रकार पुरुष हैं, इसलिए इसे
# पुरुषों_की_चित्रशैली भी कहा जाता है।
मुगलोत्तर काल पटना में हांथी दांत की चित्रकारी फली-फूली और काफी विख्यात हुई। लाल चंद्र और गोपाल चंद्र इसके दो प्रसिद्ध चित्रकार थे जिन्हें बनारस के महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह ने अपने यहां जगह दी। पटना में इसके महारथी थे दल्लूलाल। पटना शैली की शबीहें तैयार करने में इनका योगदान उल्लेखनीय है।
ब्रिटिश काल के अंत तक यह शैली भी लगभग अंत के करीब पहुची मिलती है। श्यामलानंद और राधेमोहन प्रसाद इसी शैली के कलाकार थे। # राधेमोहन_प्रसाद ने ही बाद में # पटना_आर्ट_कॉलेज की नींव रखी थी, जो कई दशकों से देश में कला-गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र है। # ईश्वरी_प्रसाद_वर्मा भारत में पटना कलम शैली के अंतिम चित्रकार थे। करीब डेढ़ दशक पहले उनका देहांत हो गया और उनके साथ ही पटना कलम शैली भी खत्म हो गयी। उनकी पचास से ज्यादा कलाकृतिया आर्ट कॉलेज में देखी जा सकती हैं।

Thursday, 4 October 2018

भगत सिंह की फांसी और गाँधी

गांधी जी ने क्यों नहीं रोकी भगत सिंह की फांसी ::--
आदर्श क्रांतिकारी के तौर पर चर्चित भगत सिंह हिंसा के रास्ते पर चलकर आज़ादी पाने के समर्थक थे. 1907 में उनका जन्म हुआ जब 38 साल के लोकसेवक मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ़्रीका में अहिंसक तरीके से संघर्ष करने का प्रयोग कर रहे थे.
सत्याग्रह के अनुभव के साथ गांधी साल 1915 में भारत आए और देखते ही देखते वह भारत के राजनीतिक पटल पर छा गए.
वहीं, जवान हो रहे भगत सिंह ने हिंसक क्रांति का रास्ता अपनाया. लेकिन इन दोनों के बीच कई चीजें समान थीं जिनमें देश के सामान्य गरीबों के हितों को अहमियत देना शामिल था.
आज़ादी का उनका ख्याल सिर्फ राजनीतिक नहीं था. दोनों चाहते थे कि देश की जनता शोषण की बेड़ियों से मुक्त हो और इसी दिशा में उनके प्रयास रहे. दोनों में एक चीज विरोधाभासी थी, लेकिन इसके बावजूद दोनों में कुछ समानताएं भी थीं.
भगत सिंह नास्तिक थे और गांधी जी परम आस्तिक थे. लेकिन धर्म के नाम पर फैलाई जाने वाली नफ़रत के दोनों ही विरोधी थे.
भगत सिंह की फांसी :-
साल 1928 में साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में वरिष्ठ कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय को पुलिस की लाठियों ने घायल कर दिया. इसके कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया.
लाला जी के जीवन के अंतिम सालों की राजनीति से भगत सिंह सहमत नहीं थे और उन्होंने उनका खुलकर विरोध किया.
लेकिन अंग्रेज़ पुलिस अधिकारियों की लाठियों से घायल हुए लाला जी की हालत देखकर भगत सिंह को बहुत गुस्सा आया.
भगत सिंह ने इसका बदला लेने के लिए अपने साथियों के साथ मिलकर पुलिस सुपिरिटेंडेंट स्कॉट की हत्या करने की योजना बनाई.
लेकिन एक साथी की ग़लती की वजह से स्कॉट की जगह 21 साल के पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या हो गई.
इस मामले में भगत सिंह पुलिस की गिरफ़्त में नहीं आ सके. लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने असेंबली सभा में बम फेंका.
उस समय सरदार पटेल के बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल पहले भारतीय अध्यक्ष के तौर पर सभा की कार्यवाही का संचालन कर रहे थे.
भगत सिंह जनहानि नहीं करना चाहते थे, लेकिन वह बहरी अंग्रेज सरकार के कानों तक देश की सच्चाई की गूंज पहुंचाना चाहते थे.
बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी दे दी.
गिरफ़्तारी के वक़्त भगत सिंह के पास उस वक्त उनकी रिवॉल्वर भी थी.
कुछ समय बाद ये सिद्ध हुआ कि पुलिस अफ़सर सांडर्स की हत्या में यही रिवॉल्वर इस्तेमाल हुई थी.
इसलिए, असेंबली सभा में बम फेंकने के मामले में पकड़े गए भगत सिंह को सांडर्स की हत्या के गंभीर मामले में अभियुक्त बनाकर फांसी दी गई.
गांधी और सज़ा माफ़ी :-.........
साल 1930 में दांडी कूच के बाद कांग्रेस और अंग्रेज सरकार के बीच संघर्ष जोरों पर था.
इस बीच भारत की राज्य व्यवस्था में सुधार पर चर्चा के लिए ब्रितानी सरकार ने अलग-अलग नेताओं को गोलमेज़ सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए लंदन बुलाया.
इस पहले गोलमेज़ सम्मेलन में गांधी जी और कांग्रेस ने हिस्सा नहीं लिया और ये सम्मेलन बेनतीज़ा रहा.
दूसरे सम्मेलन में ब्रितानी सरकार ने पहले सम्मेलन जैसी परिणिति से बचने के लिए संघर्ष की जगह बातचीत के रास्ते पर चलने का फ़ैसला किया.
17 फरवरी 1931 से वायसराय इरविन और गांधी जी के बीच बातचीत की शुरुआत हुई. इसके बाद 5 मार्च, 1931 को दोनों के बीच समझौता हुआ.
इस समझौते में अहिंसक तरीके से संघर्ष करने के दौरान पकड़े गए सभी कैदियों को छोड़ने की बात तय हुई.
मगर, राजकीय हत्या के मामले में फांसी की सज़ा पाने वाले भगत सिंह को माफ़ी नहीं मिल पाई.
भगत सिंह के अलावा तमाम दूसरे कैदियों को ऐसे मामलों में माफी नहीं मिल सकी. यहीं से विवाद की शुरुआत हुई.
गांधी जी का विरोध :-
इस दौरान ये सवाल उठाया जाने लगा कि जिस समय भगत सिंह और उनके दूसरे साथियों को सज़ा दी जा रही है तब ब्रितानी सरकार के साथ समझौता कैसे किया जा सकता है.
इस मसले से जुड़े सवालों के साथ हिंदुस्तान में अलग-अलग जगहों पर पर्चे बांटे जाने लगे.
साम्यवादी इस समझौते से नाराज़ थे और वे सार्वजनिक सभाओं में गांधी जी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करने लगे.
ऐसे में 23 मार्च 1931 के दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सज़ा दे दी गई.
इसके बाद लोगों में आक्रोश की लहर दौड़ गई. लेकिन ये आक्रोश सिर्फ अंग्रेजों नहीं बल्कि गांधी जी के ख़िलाफ़ भी था क्योंकि उन्होंने इस बात का आग्रह नहीं किया कि 'भगत सिंह की फांसी माफ़ नहीं तो समझौता भी नहीं.'
साल 1931 की 26 मार्च के दिन कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ 'जिसमें पहली और आख़िरी बार सरदार पटेल कांग्रेस के अध्यक्ष बने.'
25 मार्च को जब गांधी जी इस अधिवेशन में हिस्सा लेने के लिए वहां पहुंचे तो उनके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया गया. उनका स्वागत काले कपड़े से बने फूल और गांधी मुर्दाबाद-गांधी गो बैक जैसे नारों के साथ किया गया.
इस विरोध को गांधी जी ने 'उनकी' गहरी व्यथा और उससे उभरने वाले गुस्से का हल्का प्रदर्शन बताया और उन्होंने कहा कि 'इन लोगों ने बहुत ही गौरवभरी शैली में अपना गुस्सा दिखाया है.'
अख़बारों की रिपोर्ट के अनुसार, 25 मार्च को दोपहर में कई लोग उस जगह पहुंच गए जहां पर गांधी जी ठहरे हुए थे.
रिपोर्टों के अनुसार, 'ये लोग चिल्लाने लगे कि 'कहां हैं खूनी'
तभी उन्हें जवाहर लाल नेहरू मिले जो इन लोगों को एक तंबू में ले गए. इसके बाद तीन घंटे तक बातचीत करके इन लोगों को समझाया, लेकिन शाम को ये लोग फिर विरोध करने के लिए लौट आए.
कांग्रेस के अंदर सुभाष चंद्र बोस समेत कई लोगों ने भी गांधी जी और इरविन के समझौते का विरोध किया. वे मानते थे कि अंग्रेज सरकार अगर भगत सिंह की फ़ांसी की सज़ा को माफ़ नहीं कर रही थी तो समझौता करने की कोई ज़रूरत नहीं थी. हालांकि, कांग्रेस वर्किंग कमेटी पूरी तरह से गांधी जी के समर्थन में थी.
गांधीजी का नज़रिया :-
गांधी जी ने इस मुद्दे पर प्रतिक्रियाएं दी हैं. गांधीजी कहते हैं, 'भगत सिंह की बहादुरी के लिए हमारे मन में सम्मान उभरता है. लेकिन मुझे ऐसा तरीका चाहिए जिसमें खुद को न्योछावर करते हुए आप दूसरों को नुकसान न पहुंचाएं...लोग फांसी पर चढ़ने को तैयार हो जाएं.'
वह कहते हैं, 'सरकार गंभीर रूप से उकसा रही है. लेकिन समझौते की शर्तों में फांसी रोकना शामिल नहीं था. इसलिए इससे पीछे हटना ठीक नहीं है.
गांधीजी अपनी किताब 'स्वराज' में लिखते हैं, मौत की सज़ा नहीं दी जानी चाहिए.
वह कहते हैं, भगत सिंह और उनके साथियों के साथ बात करने का मौका मिला होता तो मैं उनसे कहता कि उनका चुना हुआ रास्ता ग़लत और असफल है. ईश्वर को साक्षी रखकर मैं ये सत्य ज़ाहिर करना चाहता हूं कि हिंसा के मार्ग पर चलकर स्वराज नहीं मिल सकता. सिर्फ मुश्किलें मिल सकती हैं.
मैं जितने तरीकों से वायसराय को समझा सकता था, मैंने कोशिश की. मेरे पास समझाने की जितनी शक्ति थी. वो मैंने इस्तेमाल की. 23वीं तारीख़ की सुबह मैंने वायसराय को एक निजी पत्र लिखा जिसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दी थी.
भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन हिंसा को धर्म नहीं मानते थे. इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया था. उनकी वीरता को नमन है. लेकिन उनके कृत्य का अनुकरण नहीं किया जाना चाहिए. उनके इस कृत्य से देश को फायदा हुआ हो, ऐसा मैं नहीं मानता. खून करके शोहरत हासिल करने की प्रथा अगर शुरू हो गई तो लोग एक दूसरे के कत्ल में न्याय तलाशने लगेंगे.
ये भी पढ़ें -
गांधीजी के इन कथनों का क्या मतलब था
भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ करने के लिए गांधी जी ने वायसराय पर पूरी तरह से दबाव बनाया हो, इस तरह के सबूत शोधकर्ताओं को नहीं मिले हैं.
फांसी के दिन तड़के सुबह गांधी जी ने जो भावपूर्ण चिट्ठी वायसराय को लिखी गई थी वो दबाव बनाने वाली थी. लेकिन तबतक काफ़ी देर हो चुकी थी.
इस विषय पर मौजूद रिसर्च के आधार पर ये कहा जा सकता है कि फांसी के दिन से पहले गांधी और वायसराय के बीच जो चर्चा हुई, उसमें भगत सिंह की फांसी के मुद्दे को गांधी जी ने गैरज़रूरी माना.
इसलिए गांधी जी द्वारा वायसराय को अपनी पूरी शक्ति लगाकर समझाने का दावा सही नहीं जान पड़ता है.
लोगों के विरोध की लहर को देखते हुए गांधीजी ने अपने ख़िलाफ़ विरोध और निंदा को अपने ऊपर लेते हुए अपने विचार लोगों के सामने रखे.
भगत सिंह की बहादुरी को मानते हुए उन्होंने उनके मार्ग का स्पष्ट शब्दों में विरोध किया और गैरकानूनी बताया.
एक नेता के तौर पर गांधीजी नैतिक हिम्मत भी याद रखने लायक है. इस पूरे मुद्दे पर अगर गाँधी जी के बर्ताव को ध्यान में रखा जाए तो उनका पक्ष समझा जा सकता है.
भगत सिंह खुद अपनी सज़ा माफ़ी की अर्जी देने के लिए तैयार नहीं थे. जब उनके पिता ने इसके लिए अर्ज़ी लगाई तो उन्होंने बेहद कड़े शब्दों में पत्र लिखकर इसका जवाब दिया था.
गांधीजी उनकी सज़ा माफ़ नहीं करा सके, इसे लेकर गांधीजी से भगत सिंह की नाराजगी से जुड़े साक्ष्य नहीं मिले हैं.
लेकिन भगत सिंह के स्वभाव को देखते हुए लगता नहीं है कि उन्हें ये बात कचोटती रही होगी कि उनकी सज़ा को माफ़ नहीं कराया गया.
सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद की मिलावट की जड़ें कितनी पुरानी हैं, ये इससे ज़ाहिर होता है कि भगत सिंह की फ़ांसी के बाद अनिवार्य शोक मनाने की वजह से कानपुर में सांप्रदायिक दंगे हुए जिन्हें रोकने जा रहे गणेश शंकर विद्यार्थी की मौत हो गई.
वर्तमान में सोचने वाले मुद्दे
भगत सिंह की सज़ा के मुद्दे पर गांधीजी की निंदा भगत सिंह के प्रति प्रेम की वजह से होती है या गांधी जी के ख़िलाफ़ द्वेष के कारण?
भगत सिंह के नाम को केवल प्रतीक बनाकर इस्तेमाल करने वाले इसका उपयोग मुख्यतया गांधीजी का विरोध करने के लिए करते हैं या फिर नारेबाजी करने वाले कहते हैं कि भगत सिंह वामपंथी, नास्तिक, बौद्धिक और सांप्रदायिकता विरोधी थे.

Tuesday, 4 September 2018

इटली

# इटली के एकीकरण का जनक - मेजिनी
#इटली के एकीकरण की तलवार - गैरीबाल्डी
#इटली के एकीकरण का श्रेय जाता है - मेजिनी, कावूर व गैरीबाल्डी
#इटली का एकीकरण किया - कावूर ने 1871 मे
#इटली की एकता का जन्मदाता - नेपोलियन
# यंग इटली का संस्थापक - मेजिनी 1831

Sunday, 22 July 2018

महमूद ग़ज़नवी

महमूद ग़ज़नवी का चरित्र और मूल्यांकन
महमूद गजनबी बहुत महत्वाकांक्षी व्यक्ति था वह एक साहसी सैनिक और सफल सेनापति था प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता अनुसार कार्य देता था और अपनी इच्छा अनुसार कार्य लेता था
विभिन्न नस्लों से मिली-जुली सेना उसके नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना बन गई उसने अपनी बहूजातिय सेना में हिंदुओं को भी नियुक्त किया महमूद गजनबी की सेना में अरब ,तुर्क ,अफगान और हिंदू सैनिक शामिल थे
महमूद की सबसे बड़ी दुर्बलता उसका कुशल शासक प्रबंधक ना होना था तुर्की शासन व्यवस्था जनजातीय संगठन पर आधारित थी
महमूद के विरुद्ध चंदेल शासक विद्याधर ने राजाओं का एक संघ बनाया था
महमूद को बुतशिकन (मूर्तिभंजक )कहा जाता है
उत्तर-पश्चिम भारत में जारी किए गए महमूद ग़ज़नवी सिक्कों पर अरबी और कश्मीर में प्रचलित शारदा लिपि में लिखे गए द्विभाषीय लेख हैं
महमूद गजनबी विद्वानों और कलाकारों का संरक्षक था उस के दरबार में संरक्षण पाने वाले प्रमुख विद्वान थे
अलबरूनी
इतिहासकार उत्बी
दर्शनशास्त्र का विद्वान फराबी
बैहाकी
फारस का कवि उजारी
खुरासानी विद्वान तुसी
उन्सूरी ,
अस्जदी,
फर्रूखी और
फ़िरदौसी आदि
महमूद गज़नवी के प्रमुख विद्वान
उत्बी
महमूद गज़नवी के विद्वानों में उत्बी महमूद के समय का महान साहित्यकार था वह शाही इतिहासकार भी था
उसकी प्रमुख पुस्तकें निम्न थी
1-किताब-उल यमनी
2-तरीख- ए -यामिनी
जिसमें महमूद गज़नवी के जीवन और कार्यों का विस्तृत वर्णन है
उत्बी महमूद ग़ज़नवी का सचिव था।उत्बी के अनुसार महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण का मुख्य उद्देश्य जिहाद या इस्लाम प्रचार था
उत्बी एक मात्र इतिहासकार था जिसने महमूद के भारत पर आक्रमण का वर्णन किया लेकिन उत्बी महमूद गजनबी के अभियानों में उसके साथ भारत नहीं आया था
फिरदौसी
महमूद गज़नवी के दरबार का प्रसिद्ध विद्वान कवि फिरदौसी था इसे “”पूर्व के होमर””की उपाधि दी गई थी
फिरदौसी की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना “”शाहनामा””है
कहा जाता है कि महमूद गजनबी ने शाहनामा लिखने के लिए फिरदोसी को 7000 सोने के मिशकल( प्रत्येक छंद की रचना के लिए एक सोने की मोहर) देने का वादा किया था किंतु शाहनामा पूरा होने पर उसने फिरदौसी को केवल 7000 चांदी के मिशकल ही दिए
जिन्हें लेने से फिरदौसी ने इनकार कर दिया यद्यपि इसका मुख्य कारण महमूद गज़नवी के कृपापात्र अयाज का फिरदौसी के विरुद्ध षड्यंत्र रचना था
क्रोध में आकर फिरदौसी सदा के लिए गजनी त्याग कर चला गया अंत में महमूद गजनबी ने क्षमा मांगी और 7000 स्वर्ण मुद्राएं फिरदौसी के पास भिजवाया
लेकिन भेंट पहुंचने से पहले ही फिरदौसी का शव संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था क्योंकि दरबार में अपमानित किए जाने के कारण फिरदौसी ने आत्महत्या कर ली थी
फिरदौसी वही कवि है जिसने “फारसी भाषा” की नीव रखी थी जिसने अपनी रचना शाहनामा से फारसी भाषा का श्रीगणेश किया था
उल्लेखनीय है कि फिरदौसी भारत नहीं आया था फिर भी अपनी पुस्तक “”शाहनामा””में उसने भारत के विषय में वर्णन किया है
”””रजनी कांत शर्मा”””ने इनकी फारसी भाषा में लिखी गई पुस्तक शाहनामा का हिंदी में अनुवाद किया
बैहाकी(966-1077)
बैहाकी महमूद ग़ज़नवी का एक शाही लेखक था।लेनपूर ने उसे “”पूर्वीय श्री पैपीय(पेप्स)”” की उपाधि दी है
वह गजनबी दरबार और उसके अमीरों से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ था उन्होंने ग़ज़नवी शासकों का 1059 इसवी तक का विस्तृत इतिहास 10 खंडों में लिखा है। जो “”तारीख-ए-बैहाकी”” के नाम से जाना जाता है
इसके विभिन्न खंडों के नाम है
1-तारीख ए सुबुक्तगीन (सुबुक्तगीन का दरबारी कवि था)
2-ताजुल फुतुह( गजनी के सुल्तान महमूद का इतिहास)
3-तारिख- ए-मसूदी( सुल्तान मसूद का इतिहास)
फराबी
दर्शनशास्त्र का विद्वान फराबी महमूद का दरबारी था
उजारी फारस के रे का निवासी उजारी भी महमूद के दरबार का कवि था
असदी तुसी यह खुरासान का रहने वाला था
अलबरूनी(973-1048ई.)
अलबरूनी खगोल विज्ञान, भूगोल, तर्कशास्त्,र औषधि विज्ञान, गणित, दर्शन, धर्म और धर्म शास्त्र का विद्वान था
इसका जन्म 973ईस्वी में खीवा (प्राचीन ख्वारिज्म) में हुआ था महमूद गजनवी के भारत विजय से पूर्व वह एक विद्वान और राज नायक के रूप में खीवा वंश के अंतिम शासक की सेवा में था
1017 ई में महमूद गजनबी ने ख्वारिज्म शाह पर विजय कर अलबरूनी को प्राप्त किया
1018-19 ईस्वी में वह महमूद गजनवी के साथ भारत आया
अलबरूनी की प्रसिद्ध रचना किताब-उल-हिंद है जिसमें 1017 से 1030 के बीच भारतीय जीवन का वर्णन है
यह पुस्तक अरबी भाषा में है जिसका बाद में फारसी भाषा में अनुवाद किया गया फारसी से अंग्रेजी भाषा में इस पुस्तक का अनुवाद एडवर्डसी सचाऊ ने अलबरूनी इंडिया,ऐन अकाउंट ऑफ द रेलिजन नाम से किया है इसका हिंदी में अनुवाद रजनी कांत शर्मा ने किया
अलबरूनी ने अपनी पुस्तक किताब-उल-हिंद में भारतीयों की विशेषकर पवित्र स्थानों पर तालाब और जल संग्रहण कार्य के निर्माण में उच्च कोटि की प्रवीणता की प्रशंसा की है
अलबरूनी लिखता है कि भारत आरंभ में सागर था कई शताब्दियों में हिमालय की नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी से वह भर गया था
अलबरूनी ब्राह्मण शिक्षा के केंद्र कन्नौज ,बनारस और कश्मीर कभी नहीं गया अलबरूनी ने भारतीय परिस्थितियां और संस्कृति को जानने के लिए ब्रम्हा गुप्त के ब्रह्मासिद्धांत ,बलभद्र, वराहमिहिर की वृहत्संहिता कपिल के सांख्य और पतंजलि के योग आधी रचनाओं का उल्लेख किया है
उसने जगह-जगह भगवत गीता ,विष्णु पुराण और वायु पुराण को उद्धृत किया है इस प्रकार पुराणों का अध्ययन करने वाला अलबरूनी प्रथम मुसलमान था
उन्सूरीउन्सूरी अपने काल का महान विद्वान था
महमूद गजनबी विद्वानों के साथ-साथ एक निर्माता और कलाकारों वह वास्तुकारों का भी संरक्षक था
उसने देश- विदेश के कलाकारों को बुलाकर गजनी में भव्य इमारतों का निर्माण करवाया उसने गजनी में कई भव्य मस्जिदों का निर्माण कराया जिसे “”पूर्व का आश्चर्य”” कहा जाता था
गजनी में ही उसने एक विश्वविद्यालय, एक बड़ा पुस्तकालय और एक अजायबघर स्थापित किया
नवार नदी पर उसने बाढ़-ए- सुल्तान बांध का निर्माण करवाया इस प्रकार महमूद के संरक्षण में गजनी एक संस्कृति स्थल के रूप में विख्यात हो गया
इसकी गणना मध्य एशिया के सुंदर नगरों में होने लगी महमूद एक न्याय प्रिय शासक भी था उस का भतीजा एक स्त्री के विरोध के बाद भी उसे अपमानित करने का प्रयास करता रहा जिसके कारण महमूद ने उसका कत्ल कर दिया था
शासन व्यवस्था को सुव्यवस्थित रखने के लिए उसने अपने सुधारों को नियंत्रण में रखा था
तुर्कों द्वारा विशेष प्रकार का धनुष काम में लिया जाता था जिसे फारसी में नावक कहते थे
महमूद ग़ज़नवी के उत्तराधिकारी
महमूद गज़नवी के बाद 15 शासक हुए । जिन्होंने 1030 से 1086 इसवी तक शासन किया
परंतु उनका कार्य युद्ध पतन और साम्राज्य की क्षीणता के लिए प्रसिद्ध है

Sunday, 15 July 2018

नदियाँ

नदियों की रोचक जानकारी~भूगोल GK
1. भागीरथी नाम से गंगा को कहां बुलाया जाता है ?
►-गंगोत्री के पास ( यह हिमानी गंगा का उद्गम स्थल है )
2. गंगोत्री कहां स्थित है और इसकी ऊंचाई कितनी है ?
►-उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में 3900 किमी की ऊंचाई पर गोमुख के निकट गंगोत्री हिमानी गंगा का उद्गम स्त्रोत है ।
3. अलकनंदा का उद्गम स्त्रोत क्या है ?
►-बद्रीनाथ के ऊपर सतोपंथ हिमानी (अलकापुरी हिमनद)
4. गंगा नदी को गंगा कहकर कहां से बुलाया जाता है ?
►-देवप्रयाग के बाद । जहां अलकनंदा और भागीरथी आपस में मिलती है । और
हरिद्वार के निकट मैदानी भाग में पहुंचती है ।
5. गंगा को पद्मा नाम से कहां पुकारा जाता है ?
►-बांग्लादेश
6. सिंधु भारत में किस राज्य से होकर बहती है ?
►-जम्मू-कश्मीर
7. भारत और पाकिस्तान के बीच संधि जलसंधि कब हुआ था ?
►-1960 ई. (भारत इस नदी का 20 प्रतिशत पानी ही इस्तेमाल कर सकता है)
8. नदियां ➨और उनके उदगम स्थल ➨संगम/मुहाना?
►-सिंधु ➨ सानोख्याबाब हिमनद (तिब्बत के मानसरोवर झील के पास)➨अरब सागर
गंगा ➨ गंगोत्री ➨ बंगाल की खाड़ी
►-यमुना ➨ यमुनोत्री हिमानी (बंदरपूंछ के पश्चिमी ढाल पर स्थित) ➨ प्रयाग (इलाहाबाद)
►-चंबल ➨ जाना पाव पहाड़ी (मध्यप्रदेश के मऊ के नजदीक) ➨ इटावा (उ.प्र)
►-सतलज ➨ राकस ताल (मानसरोवर झील के नजदीक) ➨ चिनाब नदी
►-रावी ➨ कांगड़ा जिले में रोहतांग दर्रे के नजदीक ➨ चिनाब नदी
►-झेलम ➨ शेषनाग झील {बेरीनाग(कश्मीर) के नजदीक} ➨ चिनाब नदी
►-व्यास ➨ व्यास कुंड (रोहतांग दर्रा) ➨ कपूरथला (सतलज नदी)
►-कोसी ➨ गोसाईथान चोटी के उत्तर में ➨ गंगा नदी (कारागोला के दक्षिण-पश्चिम में)
►-गंडक ➨ नेपाल ➨ गंगा (पटना के नजदीक)
►-रामगंगा ➨ नैनीताल के नजदीक हिमालय श्रेणी का दक्षिणी भाग ➨ कन्नौज के निकट गंगा नदी
►-शारदा (काली गंगा) ➨ कुमायूं हिमालय ➨ घाघरा नदी (बहराम घाट के निकट)
►-घाघरा या करनाली या कौरियाला ➨ नेपाल में तकलाकोट से ➨ गंगा नदी (सारण तथा बलिया जिले की सीमा पर)
►-बेतवा या वेत्रवती ➨ विंध्याचल पर्वत (मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के कुमारगांव के निकट) ➨ हमीरपुर (यमुना नदी में)
►-सोन ➨ अमरकंटक की पहाड़ियां ➨ पटना के नजदीक गंगा नदी में
►-ब्रह्मपुत्र ➨ तिब्बत के मानसरोवर झील से ➨ बंगाल खाड़ी
►-नर्मदा ➨ अमरकंटक (विध्याचल श्रेणी) ➨ खंभात की खाड़ी
►-ताप्ती ➨ मध्यप्रदेश के बैतुल जिले के मुल्ताई के निकट ➨ खंभात की खाड़ी (सूरत के पास)
►-महानदी ➨ सिहावा (छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के निकट) ➨ बंगाल की खाड़ी (कटक के निकट)
►-क्षिप्रा ➨ काकरी बरडी नामक पहाड़ी (इंदौर) ➨ चंबल नदी
►-माही ➨ मध्यप्रदेश के धार जिला के अमझोरा में मेहद झील ➨ खंभात की खाड़ी
►-लूनी ➨ अजमेर जिले में स्थित नाग पहाड़ (अरावली पर्वत) ➨ कच्छ की रन
►-हुगली ➨ यह गंगा की शाखा है, जो धुलिया(पं बंगाल) के दक्षिण गंगा से अलग होती है.. ➨ बंगाल की खाड़ी
►-कृष्णा ➨ महाबलेश्वर के निकट पश्चिम पहाड़ ➨ बंगाल की खाड़ी
►-गोदावरी ➨ महाराष्ट्र के नासिल जिले त्र्यंबक गांव की एक पहाड़ी ➨ बंगाल की खाड़ी
►-कावेरी ➨ ब्रह्मगिरी पहाड़ी (कर्नाटक के कुर्ग जिले में) ➨ बंगाल की खाड़ी
►-तुंगभद्रा ➨ गंगामूल चोटी से तुंगा और काडूर से भद्रा (कर्नाटक) ➨ कृष्णा नदी
►-साबरमती ➨ जयसमुद्र झील (उदयपुर जिले में अरावली पर्वत पर स्थित) ➨ खंभात की खाड़ी
►-सोम ➨ बीछा मेंडा (उदयपुर जिला) ➨ माही नदी (बपेश्वर के निकट)
►-पेन्नार ➨ नंदीदुर्ग पहाड़ी (कर्नाटक) ➨ बंगाल की खाड़ी
►-पेरियार (यह नदी केरल में बहती है) ➨ परियार झील
►-उमियम ➨ उमियम झील (मेघालय)
►-बैगाई ➨ कण्डन मणिकन्यूर में मदुरै के निकट (तमिलनाडु) ➨ बंगाल की खाड़ी
►-दक्षिणी टोंस ➨ तमसाकुंड जलाशय (कैमर की पहाड़ियों में स्थित) ➨ सिरसा के निकट गंगा में
►-आयड़ या बेडच ➨ गोमुंडा पहाड़ी (उदयपुर के उत्तर में) ➨ बनास नदी