ऋग्वैदिक काल (Rigvedic period)
आर्यों की सभ्यता वैदिक सभ्यता भी कहलाती है। वैदिक सभ्यता दो
काल-खण्डों में विभक्त है- ऋग्वैदिक सभ्यता और उत्तर वैदिक
सभ्यता। ऋग्वैदिक सभ्यता के ज्ञान का मूल स्रोत ऋग्वेद है,
अतएव यह सभ्यता उसी के नाम से अभिहित है। ऋग्वेद चारों वेदों में
सर्वाधिक प्राचीन है। प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् स्मिथ के
अनुसार- किसी भी इंडो-यूरोपीय अथवा आर्य भाषाओं में अन्य कोई
साहित्य इतना प्राचीन नहीं है जितने ऋग्वेद के मंत्र जो सुदूर
प्राचीनता के शिखर पर अकेले हैं। ऋग्वैदिक काल से अभिप्राय उस
काल से है जिसका विवेचन ऋग्वेद में मिलता है। इस काल के
अध्ययन के लिए दो प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं।
1. पुरातात्विक साक्ष्य -- चित्रित धूसर मृदभांड, धूसर मृदभांड
संस्कृति के 109 स्थल पंजाब में, हरियाणा में, 24 उत्तर प्रदेश में
तथा 8 राजस्थान में विदित है। इस धूसर मृदभांड संस्कृति का काल
1700-1800 ई.पू. माना जाता है। यह काल लगभग वही है जो
अन्य आधारों पर ऋग्वेद के संदर्भ में बताया जाता है।
खुदाई में हरियाणा के पास भगवानपुरा में 13 कमरों वाला एक भवन
मिला है एवं पंजाब में भी तीन स्थल ऐसे मिले हैं जिनका संबंध
ऋग्वैदिक काल से जोड़ा जाता है।
बोगाजकोई अभिलेख (मितन्नी अभिलेख) 1400 ई.पू.- एक लेख में
हिती राजा शुब्बिलिम्मा और मित्तान्नी राजा मतिऊअजा के मध्य हुई
संधि के साक्षी के रूप में वैदिक देवताओं इन्द्र, मित्र, वरूण और
नासत्य को उद्धृत किया गया है। यहाँ अश्विन को नासत्य कहा
गया है।
कस्सी अभिलेख (1600 ई.पू.) - इस अभिलेख से यह सूचना
मिलती है कि ईरानी आर्यों की एक शाखा भारत में आयी।
साहित्यिक साक्ष्य – ऋग्वेद - इसमें दस मंडल एवं 1028 सूक्त
हैं। पहला एवं दसवाँ मण्डल बाद में जोड़ा गया है जबकि दूसरे से
सातवाँ मण्डल पुराना है।
काल निर्धारण - आर्यों के आगमन का काल विभिन्न विद्वानों ने
अपने ढंग से निर्धारित करने की चेष्टा की है। बालगंगाधर तिलक ने
नयत्रीय आधार पर ऋग्वेद की तिथि 6000 ई.पू. निर्धारित की।
हरमन जैकोबी के अनुसार, वैदिक सभ्यता 4500 ई.पू. से 2500
ई.पू. के बीच विकसित हुई। एक प्रसिद्ध विद्वान् विंटरनिजत्स के
अनुसार, ऋग्वेद का संकलन 3000 ई.पू. हुआ। दूसरी तरफ आर. के.
मुकर्जी ऋग्वैदिक काल की शुरूआत 2500 ई.पू. तथा जी. सी.
पाण्डेय इसकी शुरूआत 3000 ई.पू. में मानते हैं। मैक्समूलर के
अनुसार, वैदिक युग की शुरूआत 1500 ई.पू. में मानी जाती है।
आर्यों का मूल निवास स्थान - बाल गंगाधर तिलक ने आकर्टिक
प्रदेशों को आर्यों का मूल स्थान माना है। फिलिप संसटी और
विलियम जोन्स ने इनका मूल स्थान यूरोप माना है। पी. गाइल्स ने
इसका मूल निवास हगरी तथा डेन्यूब नदी माना है। मैक्समूलर ने
मध्य एशिया से आर्यों का आगमन माना है। स्वामी दयानन्द ने
इसका मूल निवास तिब्बत माना। जी.बी. रीड ने इनका मूल निवास
बैकट्रिया माना। ब्रैण्डनस्टिन का मत सर्वाधिक उपयुक्त माना
जाता है। इन्होंने आर्यों का आदि देश दक्षिणी रूस माना है। नहरिंग
नामक एक अन्य विद्वान् ने दक्षिण रूस को आर्यों का आदिदेश
माना है। एक अन्य विद्वान् पोकोनी ने वेजर और निश्चुल नदियों के
मध्य भाग को आर्यों का मूल स्थान माना है। पेंका महोदय ने
स्कैण्डिनेविया को आर्यों का मूल स्थान माना है। आज अधिकांश
विद्वान् नेहरिंग के मत का समर्थन करते हैं किन्तु अनेक भारतीय
विद्वान् इस मत से सहमत नहीं हैं, वे यह नहीं मानते कि आर्य बाहर
से आए। श्री के.एम. मुशी, पं. गंगानाथ झा, डी.एस. त्रिवेदी,
एल.डी. कल्ला, राधाकुमुद मुखर्जी, डॉ. सम्पूर्णानन्द, डॉ. ए.सी.
दास, सी.वी. वैद्य तथा डॉ. राजबली पाण्डेय आर्यों को भारत का
ही मूल निवासी मानते हैं वस्तुत: अभी तक यह प्रश्न विवादास्पद
बना हुआ है।
विस्तार -- आर्य लोग जिस समय भारत में प्रविष्ट हुए और
उन्होंने देशी जनसंख्या को परास्त कर इस देश में अपनी शक्ति का
विस्तार करना प्रारम्भ किया, वे राजनैतिक दृष्टि से संगठित हो चुके
थे। समन्वय की प्रक्रिया भी यद्यपि संघर्ष के साथ-साथ चलती
रही। उनके संगठन को जन कहते थे। भारतीय आर्यों के जैसे जन थे,
वैसे ही आर्यों की अन्य शाखाओं (प्राचीन ईरानियों, ग्रीकों और
लैटिक लोगों) के भी थे। इन जनों का संगठन परिवार के नमूने पर
होता था और प्रत्येक जन का नाम उसके किसी प्रतापी पूर्व पुरुष
या विद्यमान शक्तिशाली पुरुष के नाम पर पड़ता था। एक जन के
सब व्यक्ति सजात, सनाभि व एक वंश के समझे जाते थे। अपने जन
को वे स्व कहते और दूसरे जनों के व्यक्तियों को अन्यनाभि या
अरण।
प्राय: आर्यों के अत्यन्त प्राचीन जन, अनवस्थित दशा में होते थे
क्योंकि वे किसी प्रदेश पर स्थायी रूप से बसे हुए नहीं थे।
राज्यसंस्था के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य किसी निश्चित
प्रदेश पर बस जाएँ पर इन अनवस्थित जनों में भी संगठन का अभाव
नहीं था। प्रत्येक जन के अनेक विभाग होते थे, जिन्हें ग्राम कहते थे।
ग्राम का अर्थ समुदाय है। बाद में जब मनुष्यों का कोई समूह या
समुदाय (ग्राम) किसी स्थान पर स्थायी रूप से बस गया, तो वह
स्थान भी ग्राम कहलाने लगा। इसी प्रकार जब कोई जन (जो अनेक
ग्रामों में विभक्त होता था) भी किसी प्रदेश पर स्थायी रूप से बस
जाता, तो वह प्रदेश जनपद कहलाने लगता, और स्वाभाविक रूप से
उसमें अनेक ग्रामों की सत्ता होती। राजा सारे जनपद के शासक को
कहते थे, और विभिन्न ग्रामों के शासकों को ग्रामणी ।
भारत में जब आर्यों ने प्रवेश किया, तो वे ग्रामों और जनों में हो
संगठित चुके थे। भारत के प्राचीनतम निवासियों को वैदिक साहित्य
में दास या दस्यु कहा गया है। ये लोग रंग में कृष्ण थे, और उनकी
नाक उभरी हुई होती थी। अनासः इस कारण उन्हें भी कहा जाता था।
सिन्धु सभ्यता के लोगों को परास्त कर जब आर्य जन भारत के
विविध प्रदेशों में स्थायी रूप से बस गए, तो वहाँ उन्होंने अपने
विविध जनपद स्थापित किये। ऋग्वेद के अनुशीलन से इस बात में
कोई सन्देह नहीं रह जाता कि उस युग के भारत में आर्यों के अनेक
जनपद या राज्य विद्यमान थे। अनेक मन्त्रों में पञ्चजना का
उल्लेख है। पुरु, यदु, तुर्वशु, अनु और द्रुह्यु ये पाँच पञ्चजन थे।
नि:सन्देह, ये वैदिक आर्यों की मुख्य शाखाएँ थीं पर इनके
अतिरिक्त भरत, श्रृंजय आदि अन्य का भी, अनेक जनों का उल्लेख
वेदों में आया है, जिससे इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि
वैदिक आर्य
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