Friday, 27 May 2016

उत्तर वैदिक काल में जीवन (भाग -1)

उत्तर वैदिक काल (Post Vedic period)

सभ्यता के काल का विभाजन अत्यन्त कठिन है। ऋग्वेद के बाद जब कुछ
अन्य महत्त्वपूर्ण धार्मिक ग्रन्थों की रचना हो जाती है, तब इस
काल की सभ्यता को ऋग्वैदिक काल की सभ्यता से पृथक करने की
समस्या उठ खड़ी होती है। ऋग्वैदिक काल के बाद उस काल को
जिसमें सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद और ब्राह्मण ग्रन्थों,
अरण्यकों एवं उपनिषदों की रचना हुई, उत्तर वैदिक काल के नाम से
जाना जाता है। उत्तर वैदिक काल के अध्ययन के लिए दो प्रकार के
साक्ष्य उपलब्ध हैं यथा, पुरातात्विक एवं साहित्यिक।
पुरातात्विक साक्ष्य -- उत्तर वैदिक काल के अध्ययन के लिए
चित्रित धूसर मृदभांड और लोहे के उपकरण महत्त्वपूर्ण
पुरातात्विक साक्ष्य हैं। साथ ही, स्थायी निवास स्थापित होने के
कारण अब वह भी एक महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य हो गया।
जब चित्रित धूसर मृदभांडों के साथ लौह उपकरण भी संबद्ध हो गए
तब उनकी पहचान उत्तरवैदिक स्थल के रूप में की गई। लगभग
1000 ई.पू. में भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों लोहे के
उपकरणों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। अब तक लगभग 750 चित्रित
धूसर मृदभांडों के साथ लौह उपकरण नहीं अपितु ताँबे तथा काँसे के
उपकरण मिले हैं। उदाहरण के लिए, भगवान पुरा दधेरी, नागर एंव
कटपालन। इस आधार पर यह स्थापित किया गया है कि चित्रित
धूसर मृदभांड में भी दो चरण रहे-
(1) पूर्व लौह चरण तथा (2) लौह चरण ।
साहित्यिक स्रोत -- इस काल को जानने के लिए महत्त्वपूर्ण
साहित्यिक स्रोत सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, अरण्यक
और कुछ उपनिषद् हैं। अधिकतर उत्तर वैदिक ग्रंथ पश्चिमी गंगा
घाटी कुरू-पांचाल क्षेत्र से संबद्ध रहे हैं परन्तु शतपथ ब्राह्मण
उत्तरी बिहार के क्षेत्र से भी संबद्ध प्रतीत होता है।
विस्तार -- वैदिक सभ्यता का प्रसार जितना उत्साही राजकुमारों के
प्रयास उतना ही पुरोहितों द्वारा अग्नि को नये प्रदेश का स्वाद
चखाने 1000 ई.पू. में जब लोहे के उपकरण बनने लगे तो गंगा
यमुना को साफ करना अधिक सुगम हो गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश
में आर्यों का सामना उन लोगों से हुआ जो तांबे के औजार एवं गेरूए
मृदभांड का इस्तेमाल करते थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी
बिहार में उनका सामना ऐसे लोगों से हुआ जो तांबे के औजार व काले
एवं लाल रंग के मृदभांडों का प्रयोग करते थे। यह कहना मुश्किल है
कि उनका मुकाबला उत्तर हड़प्पाई लोगों से हुआ या मिश्रित नस्लों
के लोगों से। विस्तार के दूसरे दौर में वे इसलिए सफल हुए कि उनके
पास लोहे के हथियार एवं अश्वचालित रथ थे।
पंजाब से आर्यजन गंगा यमुना दोआब के अंतर्गत संपूर्ण उत्तर
प्रदेश में फैल गए। दो प्रमुख कबीले भरत और पुरू एक होकर कुरू
के नाम से प्रख्यात हुए। आरंभ में वे लोग दोआब के ठीक छोर पर
सरस्वती एवं दृषद्वती नदियों के प्रदेश में बसे और प्रारंभ में उनकी
राजधानी असन्दीवात थी। शीघ्र ही कुरुओं ने दिल्ली एवं ऊपरी
दोआब पर अधिकार कर लिया और यही कुरूक्षेत्र कहलाने लगा।
उनकी राजधानी हस्तिनापुर हो गई। बल्हिक, प्रतिपीय, राजा
परीक्षित, जन्मेजय आदि इसी राजवंश के प्रमुख राजा हुए।
परीक्षित का नाम अथर्ववेद में मिलता है। जन्मेजय के बारे में ऐसा
माना जाता है कि उसने सर्पसत्र एवं दो अवश्मेध यज्ञ किए। कुरू
वंश का अन्तिम शासक निचक्षु था। वह हस्तिनापुर से राजधानी
कौशांबी ले आया क्योंकि हस्तिनापुर बाढ़ में नष्ट हो चुका था। कुरू
कुल के इतिहास से ही महाभारत का युद्ध भी जुड़ा है। यह युद्ध
950 ई.पू. कौरवों और पांडवों के बीच हुआ। यद्यपि दोनों कुरू कुल
के ही थे।
पांचाल - मध्य दोआब में क्रीवी एवं तुर्वस आर्य शाखाओं ने
मिलकर पांचाल राजवंश की स्थापना की। इसका क्षेत्र आधुनिक
बरेली, बदायूँ एवं फरूखाबाद है। इसके महत्त्वपूर्ण शासक प्रवाहण
जैवलि थे, जो विद्वानों के संरक्षक थे। पांचाल दार्शनिक राजाओं के
लिए जाना जाता है। आरूणि श्वेतकेतु इसी क्षेत्र से जुड़े हुए थे।
उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता का केंद्र मध्य देश था। यह सरस्वती
से गंगा के दोआब तक फैला हुआ था। गंगा यमुना दोआब क्षेत्र से
आर्यों का विस्तार सरयू नदी तक हुआ और सरयू नदी के किनारे
कौशल राज्य की स्थापना हुई, जो रामकथा से जुड़ा हुआ है। फिर
आर्यों का विस्तार वरणवति के किनारे हुआ और काशी राज्य की
स्थापना हुई। तत्पश्चात सदानीरा नदी (गंडक) के किनारे विदेह
राज्य की स्थापना हुई। माना जाता है कि विदेह माधव ने अपने गुरु
राहुलगण की सहायता से अग्नि के द्वारा इस क्षेत्र को शुद्ध किया
था। इसकी सूचना हमें शतपथ ब्राह्मण से मिलती है।
अजातशत्रु को एक दार्शनिक राजा माना जाता था। वह बनारस से
संबद्ध था। सिंधु नदी के दोनों तटों पर गांधार जनपद था। गांधार
और व्यास नदी के बीच कैकेय का देश अवस्थित था। इस वंश का
दार्शनिक राजा अश्वपति कैकेय था। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार
उसने दावा किया था कि- मेरे राज्य में न चोर है न मद्यप, न
क्रियाहीन और न व्याभिचारी और न अविद्वान्। मध्य पंजाब में
सियालकोट और उसके आस-पास मद्र देश था। राजस्थान के
जयपुर, अलवर और भरतपुर में मत्स्य राज्य की स्थापना हुई।
मध्य प्रदेश में कुशीनगर की स्थापना हुई। आयाँ ने विंध्यांचल के
क्षेत्र तक प्रसार किया। गंगा-यमुना दोआब एवं उसके नजदीक का
देश ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। हिमालय एवं विध्यांचल के बीच का
क्षेत्र मध्यदेश कहलाता था। उत्तर वैदिक ग्रंथों में ऋग्वैदिक ग्रंथों
की तुलना भौगोलिक जानकारी बेहतर प्रतीत होती है। इनमें दो
समृद्ध अरब सागर एंव हिन्द महासागर का वर्णन है। इसमें हिमालय
पर्वत की कई चोटियों की भी चर्चा है। उसी प्रकार उनमें विंध्य
पर्वत का भी अप्रत्यक्ष रूप में जिक्र किया गया है। दक्षिण में
आर्य सभ्यता के बाहर पुलिंद (दक्षिण), शबर (मध्य प्रांत एवं
उड़ीसा), व्रात्य (मगध) और निषाद् आदि निवास करते थे। जैसे-
जैसे आर्य पूरब की ओर बढ़ते गए, वे पश्चिम का क्षेत्र भूलते गए।
क्योंकि उत्तरवैदिक ग्रंथों में पंजाब का जिक्र नहीं के बराबर मिलता
है और अगर समिति रूप में इसका जिक्र हुआ भी है तो इसे अशुद्ध
क्षेत्र माना गया जहाँ वैदिक यज्ञ संपन्न नहीं किया जा सकता।
राजनैतिक व्यवस्था (Political system) -- इस काल में,
राजनैतिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टि-गोचर होते हैं।
राजतंत्र सशक्त ही नहीं हुआ बल्कि बड़े प्रादेशिक राज्यों की
स्थापना भी हुई एवं प्रशासनिक व्यवस्था में भी एक निश्चित
पद्धति का आविर्भाव हुआ। पूर्व काल में विभिन्न जन, किसी
निश्चित प्रदेश से सम्बद्ध नहीं थे, किन्तु इस काल में जनों का
स्थान बड़े जनपदों ने ले लिया था। ऋग्वेद काल में राजा का प्रभुत्व
विश अथवा एक जन के लोगों तक सीमित था, किन्तु अब उसका
स्वामित्व एक राष्ट्र तक विस्तृत हो गया। ऐतरेय ब्राह्मण के
अनुसार, समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का शासक एकराट् कहलाता था।
अथर्ववेद के अनुसार, एकराट् सर्वोपरि शासक को कहते हैं, जैसे देश
के अधिपति थे।
राजा का पद भी अधिक स्थाई और वंशानुगत हो गया था। इस काल
के साहित्य में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं, जिनमें राजा के निर्वाचित
होने का संकेत मिलता है। युद्ध अब गायों के लिए न होकर क्षेत्रों
के लिए होने लगे। राजा के दैवी अधिकारों की घोषणा ऋग्वेद में तब
हुई, जब एक जगह राजा पुरू यह घोषणा करता है- मैं इन्द्र हूँ, मैं
वरूण हूँ। राजत्व के विकास के सम्बन्ध में ऐतरेय ब्राह्मण में कहा
गया है कि देवों एवं दानवों के मध्य युद्ध हुआ एवं देवगण परास्त
हुए। अत: देवताओं ने निश्चय किया कि चूंकि हमारा कोई राजा नहीं
है, दानव हमें हरा देते हैं, फलत: हमें अपने एक राजा का चयन करना
चाहिए।
उन्होंने अपना एक राजा निर्वाचित किया और उसके निर्देशन में
दानवों पर विजय प्राप्त की। इसी ब्राह्मण में अन्यत्र विवेचन
मिलता है कि देवताओं ने इन्द्र को अपना राजा निर्वाचित किया
क्योंकि परस्पर विचार-विमर्श के पश्चात् वे इस निर्णय पर पहुँचे
कि देवताओं में वे सबसे पराक्रमी, अधिक शक्तिशाली, वीर और
सबसे पूर्ण तथा किसी भी कार्य को अच्छी तरह संपादित करते हैं।
इस ब्राह्मण से यह जानकारी मिलती है कि राजा का चयन सबकी
सहमति से होता था, जो सामान्यत: युद्ध आदि का संचालन करने में
समर्थ हो तथा जो राजकीय कार्यों का सम्पादन कर सके। प्रारम्भ
में प्रकृति की एक ऐसी अवस्था थी जिसमें जिसकी लाठी उसी की
भैस की कहावत चरितार्थ होती थी। अत: शान्ति एवं व्यवस्था
स्थापित करने के लिए उन्होंने एक राजा चुना और उसने लोगों के
धन-जन की रक्षा करने का वचन इस शर्त पर दिया कि लोग उसे
कर (बलि) देंगे। इस सिद्धान्त का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण के एक
रहस्यवादी पद में मिलता है। उसमें कहा गया है कि जब कभी सूखा
पड़ता है तब शक्तिशाली लोग कमजोरों को पकड़ लेते हैं, क्योंकि
पानी ही विधान हो जाता है।
शतपथ ब्राह्मण एवं ऐतरेय ब्राह्मण में एक राजवंश की दस पीढ़ियों
तक के उत्तराधिकार का उल्लेख मिलता है। इससे पता चलता है कि
राजत्व वंशानुगत था। राजत्व के स्थाई तथा वंशानुगत होने से राजा
के पद की प्रतिष्ठा में वृद्धि होना स्वाभाविक था। राजा को
प्रजापति का प्रतिनिधि कहा गया। अत: वह एक होने पर भी जन
समूह पर शासन करता है। इस प्रकार राजत्व के दैवीय विकास के
सिद्धान्त का आविर्भाव हुआ। वैदिक देवता इन्द्र, वरुण एवं सोम
की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी अनेक आख्यायिकाएं हैं, जिनमें से
कुछ राजा की दैवी उत्पत्ति तथा कुछ उसके लोकप्रिय निर्वाचन पर
प्रकाश डालती हैं। कहा जा सकता है कि एक ओर अराजकता की
स्थिति में राजा के निर्वाचन का विचार चल रहा था, तो दूसरी ओर
राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त भी समाज में प्रचलित होने
लगा था। तैत्तिरीय ब्राह्मण में प्रसंग है कि इन्द्र की स्थिति
देवताओं में बहुत निम्न थी किन्तु प्रजापति ने उसे देवताओं का राजा
नियुक्त किया। इसमें यह भी उल्लेख मिलता है कि राजसूय एवं
वाजपेय यज्ञों के सम्पादन द्वारा राजा प्रजापति के समान प्रभुत्व
सम्पन्न हो जाता है। तथापि राजत्व प्रतिष्ठा का आधार जनमत
था। अथर्ववेद में राजा को पदमुक्त किये जाने एवं राज्य से
बहिष्कृत होकर दूसरे क्षेत्र में विचरण करने का विवरण मिलता है।
एक निष्कासित राजा का, अपनी प्रजा एवं विरोधियों द्वारा पुन:
वरण किये जाने का भी उल्लेख आया है। पंचर्विश ब्राह्मण में एक
विशेष संस्कार का उल्लेख है, जिसके द्वारा पदच्युत राजा पुनः
राज्य कर सकता था अथवा राज्यारुढ़ होने की स्थिति में अपनी
प्रजा का पुनः समर्थन प्राप्त करता था। कहा जा सकता है कि
राजा के मानवीय स्वरूप को भुलाया नहीं गया था। राजा के वंशानुगत
होने से वह स्वच्छन्द रूप से कार्य करता था परन्तु उसे निरंकुश
नहीं माना जा सकता।
साधारण नरेश के लिए राजा, बड राज्यों के शासक अधिराज,
राजाधिराज, विराट् सार्वभौम (सम्पूर्ण पृथ्वी का राजा) आदि का
प्रयोग किया जाने लगा। राजा लोग इन उपाधियों की सार्थकता
सिद्ध करने के लिए विविध प्रकार के यज्ञ अपने पद के अनुरूप
सम्पादित करते थे। ऐतरेय ब्राह्मण प्राच्य देश के शासकों के
साम्राज्य पद के लिए अभिषिक्त किये जाने का उल्लेख करता है।
ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उत्तर का राजा विराट्, दक्षिण का राजा
भोज, पश्चिम का स्वराट, मध्य देश का राजा राजा और पूरब का
राजा सम्राट् कहलाता था। जैसा स्पष्ट है कि प्रत्येक राजा बड़े
भूप्रदेश पर अपने प्रभुत्व स्थापना की कामना रखता था जिसकी
प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति राजसूय यज्ञ के अवसर पर दिखाई देती
है, जिसमें वह धनुष बाण लेकर चारों दिशाओं की विजय का उल्लेख
करता था। राज्यारोहण के समय राजा के अभिषेक तथा उसके द्वारा
ली जाने वाली शपथ का विस्तृत विवरण ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलता
है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, मनोनीत राजा मातृभूमि से अनुमति
इन शब्दों में प्राप्त करता था- मातृभूमि! तुम मेरी हिंसा न करो और
मैं तुम्हारी हिंसा न करूं। सम्भवत: ऐसा करना इसलिए आवश्यक था
कि शासक मातृभूमि के प्रति निष्ठावान हो। कहा गया है कि राजा
एवं राष्ट्र एक दूसरे के हितैषी हों जैसे माता और पुत्र। इस अवसर
पर विभिन्न देवताओं को आहुतियाँ दी जाती थीं। सबसे अन्त में धर्म
या विधि के स्वामी वरूण को आहुति दी जाती थी क्योंकि वैदिक
राजनीती में विधि (धर्म) को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है।
एवं राजा को दंड या शासन का प्रतिरुप माना गया जो धर्म की
रक्षा एवं संस्थापन करता था। राजा द्वारा की जाने वाली शपथ का
उल्लेख मिलता है- जिस रात्रि को मेरा जन्म हुआ है और जिस
रात्रि को मेरी मृत्यु होगी, इन दोनों के बीच में जो मेरा यज्ञ फल
और दानादि पुण्य है, जो लोक में धर्म, आयु और प्रजाएं हैं वे सब
नष्ट हो जाएं यदि मैं तुझसे द्रोह करूँ। यह कथन भी उल्लेखनीय है
जिसमें राज्यारोहण के दौरान राजा को कहा जाता था कि- तुम्हे यह
राष्ट्र दिया जाता है, कृषि के लिए, जनता के क्षेम के लिए और
सर्वाधिक पोषण के लिए एवं उन्नति के लिए। इससे पता चलता है
की राजा को राज्य एक धरोहर के रूप में सौंपा जाता था एवं राजा के
उस पर अधिकृत रहने की कसौटी जनता की प्रगति एवं कुशलता थी।
इस अभिषेक द्वारा अदण्ड्य कर दिया जाता था, अर्थात् उसे दण्ड
से परे मान लिया जाता था। आर.के. मुकर्जी ने लिखा है कि- इससे
इस मत की होती है कि राजा स्वयं दंड से अतीत रहते हुए उस दंड
को धारण करता है जो एक धर्म का रक्षक है। राजा धर्म का
विधाता या स्रोत नहीं, वह उसको धारण करने वाला है। इस प्रकार
हम देखते हैं कि राजा की स्थिति पर्याप्त शक्तिशाली हो गई थी।
किन्तु पूर्ववत जनशक्ति का राजा पर नियन्त्रण एवं प्रभाव बना
हुआ था। ताण्ड्य महाब्राह्मण में एक कथानक मिलता है, जिसमें
पुरोहित द्वारा राजा के विनाश के लिए प्रजा को सहयोग प्रदान
करने का उल्लेख हुआ है। कुल मिलाकर राजपद की प्रतिष्ठा बढ़ी
क्योंकि इससे कुछ संस्कार जुड़ गए। कुछ महत्त्वपूर्ण संस्कार इस
प्रकार थे यथा-
राज्याभिषेक – राज्याभिषेक संस्कार सबसे महत्त्वपूर्ण था। ऐतरेय
ब्राह्मण के अनुसार इसका उद्देश्य परम शक्ति की प्राप्ति था।
कभी-कभी दो राज्याभिषेक भी होते थे, जैसे युधिष्ठिर के दो
राज्याभिषेक हुए। राज्य के कुछ विशेष मंत्रियों के भी अभिषेक होते
थे। राज-पुरोहित का भी एक विशेष संस्कार हुआ करता था। अभिषेक
17 प्रकार के जलों से होता था। अभिषेक संस्कार के समय रत्नियों
की, एक रानी की, एक हाथी की, एक सफेद घोड़े की एवं एक सफेद
बैल की तथा एक श्वेत क्षेत्र इत्यादि की उपस्थिति आवश्यक थी।
राजसूय यज्ञ - यह अपेक्षाकृत एक बड़ा यज्ञ था। इसका वर्णन
शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। जहाँ राज्याभिषेक एक आवश्यक कृत
था, वहीं राजसूय एक ऐच्छिक धार्मिक अनुष्ठान था। राजसूय-
यज्ञ में वरूण देवता पार्थिव शरीर में प्रकट होते थे। यह दो दिन
चलता था। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, राजा के लिए ही राजसूय
यज्ञ है।
अश्वमेघ यज्ञ- यह एक विस्तृत समारोह था। इसका उद्देश्य राजा
के राज्य का विस्तार करना और राज्य के लोगों को सुख और
समृद्धि प्रदान करना था। शतपथ ब्राह्मण में भरतों के दो राजाओं
भरत दोषयन्ति और शतानिक सत्राजित द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने
का उल्लेख है। सार्वभौमिक और चक्रवर्ती का स्तर प्राप्त करने के
लिए अश्वमेघ यज्ञ का विधान था।
वाजपेय यज्ञ (शक्ति का पान) - इसका उद्देश्य राजा को नव
यौवन प्रदान करना और उसकी शारीरिक एवं आत्मिक शक्ति को
बढ़ाना था। इसी से जुड़ा हुआ समारोह रथ दौड़ होती थी जिसमें राजा
का रथ सबसे आगे निकलता था। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, जो
राजा सम्राट् का स्तर प्राप्त करना चाहता था उसके लिए वाजपेय
का विधान अनिवार्य था।
अथर्ववेद में कहा गया है कि राष्ट्र राजा के हाथ में हो और इसे
इन्द्र, बृहस्पति आदि देव सुदृढ़ बनाए। शतपथ ब्राह्मण एवं तैतरीय
उपनिषद् में कहा गया है कि राजा राष्ट्र का पोषक होता है।
करारोपण प्रणाली नियमित हो गई थी। और बली के अतिरिक्त
शुल्क और भाग भी लिया जाने लगा था। अब बलि स्वेच्छा से दिया
जाने वाला कर नहीं था वरन् यह लोगों पर आवश्यक रूप से लाद
दिया गया था। संभवत: आय का 16वाँ भाग कर के रूप में लिया
जाता था। कर की अदायगी अन्न एवं पशु दोनों रूपों में होती थी।
शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित बलिकृत से संकेत मिलता है कि कर
का बोझ वैश्य वर्ग पर था।
प्रशासन -- जब कर की प्रणाली नियमित हो गई तो ऋग्वैदिक
प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन हो गया। अधिकारियों की संख्या
में वृद्धि हुई। कुछ-एक अधिकारियों की शक्ति में कटौती भी हुई।
उदाहरण के लिए ग्रामणी नामक अधिकारी की शक्ति में वृद्धि हुई
एवं विशपति नामक अधिकारी की शक्ति में कटौती हुई। शतपथ
ब्राह्मण में रत्निनों की चर्चा है। रत्नियों की संख्या 12 थी,
यथा-
(1) सेनानी, (2) पुरोहित, (3) युवराज, (4) महिषि (रानी), (5)
सूत (राजा का सारथी), (6) ग्रामणी (ग्राम का मुखिया), (7)
क्षतृ या प्रतिहारी (द्वारपाल), (8) संगृहित्री (कोषाध्यक्ष), (9)
भागदुघ (कर-संग्रहकर्ता), (10) अक्षवाप (पासे के खेल में राजा
का सहयोगी), (11) पालागल (राजा का मित्र दूत या विदूषक का
पूर्वज) (संदेशवाहक) और (12) गोविकर्तन (गवाध्यह्म अथवा जंग
लाधिपति) पंचविश ब्राह्मण में रत्निनों को वीर कहा गया है। इससे
उनके महत्त्व का बोध होता है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य
अधिकारियों को भी चर्चा मिलती है।
कर्माकार - उद्योग का अधिकारी।
स्थपति - संभवत: यह सौ गाँवों का शासन देखता था। ऋग्वेद में
जीवग्रीभ एवं डूपनिषद् में उग्र की चर्चा मिलती है। इनमें हम पुलिस
अधिकारी के आभास पाते हैं ।राजा का प्रमुख सलाहकार पुरोहित था
जो राजनैतिक मामलों में परामर्श देने के साथ धार्मिक अनुष्ठानों का
सम्पादन भी करता था।
ब्राह्मण ग्रन्थों में उसके लिए राष्ट्रगोप शब्द का प्रयोग इस
तथ्य को इंगित करता है कि यज्ञों एवं अनुष्ठानों से राष्ट्र की
सुरक्षा होती है। रत्नियों में राजा की महिषी (प्रधान रानी) भी
सम्मिलित कर ली गई, उसे तत्कालीन प्रशासनिक व्यवस्था में
महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। सैन्य संचालन का कार्य सेनापति
सम्पादित करता था। सेनानी को राजा द्वारा हिरण्य भेंट-स्वरूप
दिये जाने का उल्लेख आया है। राजा के रथ चालक को सूत कहा
गया। कीथ की धारणा है कि स्थानीय लेखक इसे रथ चालक मानते
हैं किन्तु सम्भवत: वह उद्घोषक या राजा की स्तुति करने वाला था।
ग्रामणी ग्राम प्रमुख था और भागदुध कर संग्रह करता एवं राज्य
के राजस्व का हिसाब रखता था। अक्षवाप सम्भवत: लेखाकार का
कार्य करता था एवं गोविकर्ता राज्य के गोधन का अधिकारी रहा
होगा। जबकि क्षमता राज्य के दुर्ग तथा महल का अधिकारी कहा
गया है। मैत्रायणी संहिता में तक्षन अथवा बढ़ई तथा रथकार
अथवा रथ निर्माता को भी रत्नियों की सूची में सम्मिलित किया
गया है। शतपथ ब्राह्मण में पालागल का नाम भी मिलता है जो
सम्भवत: सन्देशवाहक का कार्य करता था। डॉ. पुरी ने जिक्र
किया है कि रत्नियों को राज निर्माता के रूप में नहीं देखा जाना
चाहिए बल्कि इनकी राजा के व्यक्तिगत सहयोगियों के रूप में गणना
की जानी चाहिए क्योंकि प्रशासनिक व्यवस्था में इनका विशेष
योगदान रहता था। आगे लिखा है कि उस काल में भी गुप्तचर
व्यवस्था अपेक्षित थी। तैत्तरीय संहिता में दूत एवं प्रहिता का
उल्लेख आया है। ऋग्वेद् में दूत को सन्देशवाहक अथवा राजदूत कहा
है, किन्तु बाद में इसका उपयोग आलंकारिक रूप में होने लगा। यह भी
कहा गया है कि सूत आगे जाकर दूत का कार्य सम्पादित करने लगा।
सायणाचार्य ने स्पष्ट किया है कि दूत नियमित राजप्रतिनिधि था
जबकि प्रहिता को मात्र जासूस कहा जा सकता है।
उत्तर वैदिक काल में राजा की सम्प्रभुता में वृद्धि हुई तथापि उसे
भूस्वामित्व नहीं मिला, क्योंकि राजा को कृषक से केवल भूराजस्व
वसूल करने का ही अधिकार था। ऋग्वेद् काल से ही राजा को अपने
दायित्व निर्वाह के बदले में प्रजा से बलि या कर पाने का अधिकारी
माना जाता था। यह राजा को स्वेच्छापूर्वक दिया गया उपहार होता
था। किन्तु इस काल में प्रजा से नियमित कर वसूलने का प्रावधान
हो चला था। राजा के लिए विशमता अथवा विश का भक्षक पद का
प्रयोग इसका स्पष्ट निर्देश करता है। नियमित राजस्व की वसूली
हेतु एक अधिकारी की नियुक्ति की गई, जिसे भागदुध कहा गया है।
वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि कर का मुख्य भार वैश्यों पर
था, क्योंकि वैश्य वर्ग पशुपालन, कृषि वाणिज्य-व्यापार एवं
विविध शिल्प कर्म द्वारा धनार्जन करता था। राज्य का भाग अन्न
तथा पशुओं के रूप में दिया जा सकता था। सम्भवत: आय का
सोलहवां भाग राजा को मिलता था। राजा को विश का भक्षण करने
वाला, कहे जाने के सन्दर्भ में हाप्किन्स की मान्यता है कि राजा
जनता का शोषण करते थे। किन्तु विशमता शब्द के प्रयोग मात्र से
आर्थिक शोषण की परिकल्पना नहीं की जा सकती। इसका अभिप्राय
(विश+अता) भोगी भी होता है। कहा जा सकता है कि राजा प्रजा के
करों का एवं उपहारों का उपभोग करता था। वैदिक साहित्य में ऐसे
कोई साक्ष्य नहीं मिलते जिनके आधार पर कहा जा सके कि राजकर
अत्यधिक थे। सभा और समिति का भी इस युग में पर्याप्त प्रभाव
देखा जा सकता है। उत्तरवैदिक राजनीति पर भी जनजातीय तत्व का
प्रभाव देखा जा सकता था। शतपथ ब्राह्मण में एक अनुष्ठान में
राजा को यह सलाह दी गई कि वह अपने भाई बन्धुओं के साथ एक
ही बरतन में भोजन करें।
सभा -- सभा सम्भवत: चयनित सदस्यों की छोटी संस्था थी जो
न्याय सम्बन्धी कायों का सम्पादन करती थी। इसे नरिष्ठा कहा
गया। इसका अभिप्राय: सामूहिक वादविवाद है। इस काल में यह
ग्राम संस्था न होकर राज-संस्था के रूप में प्रतिष्ठित थी, अत:
इसमें सामूहिक वाद-विवाद द्वारा ही निर्णय लिया जाता था।
मैत्रायणी संहिता में सभा को ग्राम के न्यायिक कार्यालय के रूप में
व्याख्यायित किया है जिसमें ग्राम्य वादिन न्यायिक कार्य
सम्पादन करता था। सभाचर शब्द इंगित करता है कि सम्भवत:
इसका न्यायिक कार्य में सहयोग रहता था। स्पष्ट है कि सभा में
राजनैतिक मामलों के साथ न्यायिक कार्य भी सम्पादित किये जाते
थे।
ग्राम प्रशासन पर किसी एक व्यक्ति का प्रभुत्व नहीं था। उसके
समस्त विषय सभा के अधीन थे और सभा में राजा भी उपस्थित
रहता था। इसके सदस्य अत्यन्त सम्माननीय व्यक्ति माने जाते थे।
अथर्ववेद में विवरण मिलता है। कि यम देवता की सभा के सदस्य
यम को प्राप्त होने वाले पुण्य के सोलहवें भाग के अधिकारी थे। इस
तथ्य से परिलक्षित होता है कि ये संस्थायें कार्य संचालन हेतु
राजकर का कुछ भाग प्राप्त करती रही होंगी। कहा गया कि
प्रजापति सभा की सहमति के बिना कार्य नहीं करते थे। सम्भवत:
राजा भी प्रत्येक निर्णय के लिए सभा की सहमति प्राप्त करता
होगा। वैदिक साहित्य में सभापति एवं सभासद शब्द आये हैं,
अर्थात् सभा की कार्यवाही का संचालन करने के लिए सभापति रहा
करता था।
समिति -- समिति, अपेक्षाकृत बड़ी संस्था प्रतीत होती है जो
सम्भवतः राज्य की विशाल जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली
केन्द्रीय संस्था थी। राजा के निर्वाचन में यह संस्था जनया जनपद
का प्रतिनिधित्व करती थी। अथर्ववेद में विवरण मिलता है कि
ब्राह्मण सम्पत्ति का अपहरण करने वाले राजा को समिति का
सहयोग नहीं मिलना चाहिए। शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए
एवं प्रशासनिक स्थिति सुदृढ़ करने हेतु राजा को समिति के समर्थन
की आवश्यकता होती थी। इसमें भी किसी भी निर्णय पर पहुँचने से
पूर्व पर्याप्त वाद-विवाद अपेक्षित था। अनेक उपनिषदों में भी
राजा की अध्यक्षता में हुए वाद-विवाद की सूचना मिलती है।
उपनिषद् काल के पश्चात् सभा-समितियों के अस्तित्त्व का उल्लेख
नहीं मिलता।
राजा की शक्तियों पर सीमा - फिर भी इस काल में राजा की शक्ति
पर कतिपय सीमाएँ थीं-
राजा की शक्ति असीमित नहीं थी क्योंकि करारोपण पद्धति नियमित
होने के बावजूद उत्पादन प्रणाली विकसित नहीं हो पाई थी, इसलिए
राजा के खजाने में अपेक्षित धन नहीं पहुँच पाता था।
स्थायी सेना का अभाव था ।
शतपथ ब्राह्मण में सुत एवं ग्रामीणी को अराजनोराजकतृ कहा गया
है और मंत्री को राजनोराजकतृ कहा गया है।
राजसूय यज्ञ में एक परंपरा थी, जिसमें राजा द्वारा राज्य के
रत्नियों को हवि प्रदान की जाती थी। यहाँ राजा उनके घर जाकर
उनका समर्थन एवं सहयोग प्राप्त करता था।
राजा की स्वेच्छाचारिता पर रीति एवं परंपरा का अंकुश भी था।
इसके अतिरिक्त वैदिक राजनीति में ब्रह्म का वाहक ब्राह्मण और
क्षत्र का वाहक क्षत्रिय माना जाता था। ब्राह्मण अपना राजा
सोम को मानता था।
कुछ हद तक सभा एवं समिति भी राजा की शक्ति पर नियंत्रण
करती थी। यद्यपि उत्तर वैदिक काल में इनकी स्थिति में कुछ
गिरावट आयी थी। उत्तर वैदिक काल में समिति की तुलना में सभा
अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई। अथर्ववेद में एक जगह सभा के सदस्यों
को नरिष्ठा कहा गया है। इसका आशय होता है सामूहिक वाद-
विवाद।

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