Thursday, 31 August 2017

घनश्याम दास बिरला जी का पत्र

घनश्यामदास जी बिड़ला (GD Birla) का अपने पुत्र बसंत कुमार जी बिड़ला (BK Birla) के नाम 1934 में लिखित एक अत्यंत प्रेरक पत्र जो हर एक को जरूर पढ़ना चाहिए -
चि. बसंत.....
यह जो लिखता हूँ उसे बड़े होकर और बूढ़े होकर भी पढ़ना, अपने अनुभव की बात कहता हूँ।
संसार में मनुष्य जन्म दुर्लभ है और मनुष्य जन्म पाकर जिसने शरीर का दुरुपयोग किया, वह पशु है। तुम्हारे पास धन है, तन्दुरुस्ती है, अच्छे साधन हैं, उनको सेवा के लिए उपयोग किया, तब तो साधन सफल है अन्यथा वे शैतान के औजार हैं। तुम इन बातों को ध्यान में रखना।
धन का मौज-शौक में कभी उपयोग न करना, ऐसा नहीं की धन सदा रहेगा ही, इसलिए जितने दिन पास में है उसका उपयोग सेवा के लिए करो, अपने ऊपर कम से कम खर्च करो, बाकी जनकल्याण और दुखियों का दुख दूर करने में व्यय करो। धन शक्ति है, इस शक्ति के नशे में किसी के साथ अन्याय हो जाना संभव है, इसका ध्यान रखो की अपने धन के उपयोग से किसी पर अन्याय ना हो।
अपनी संतान के लिए भी यही उपदेश छोड़कर जाओ। यदि बच्चे मौज-शौक, ऐश-आराम वाले होंगे तो पाप करेंगे और हमारे व्यापार को चौपट करेंगे।
ऐसे नालायकों को धन कभी न देना, उनके हाथ में जाये उससे पहले ही जनकल्याण के किसी काम में लगा देना या गरीबों में बाँट देना। तुम उसे अपने मन के अंधेपन से संतान के मोह में स्वार्थ के लिए उपयोग नहीं कर सकते।
हम भाइयों ने अपार मेहनत से व्यापार को बढ़ाया है तो यह समझकर कि वे लोग धन का सदुपयोग करेंगे l
भगवान को कभी न भूलना,
वह अच्छी बुद्धि देता है,
इन्द्रियों पर काबू रखना, वरना यह तुम्हें डुबो देगी।
नित्य नियम से व्यायाम-योग करना। स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी सम्पदा है। स्वास्थ्य
से कार्य में कुशलता आती है, कुशलता से कार्यसिद्धि और कार्यसिद्धि से समृद्धि आती है l
सुख-समृद्धि के लिए स्वास्थ्य ही पहली शर्त है l मैंने देखा है की स्वास्थ्य सम्पदा से रहित होनेपर करोड़ों-अरबों के स्वामी भी कैसे दीन-हीन बनकर रह जाते हैं। स्वास्थ्य के अभाव में सुख-साधनों का कोई मूल्य नहीं। इस सम्पदा की रक्षा हर उपाय से करना। भोजन को दवा समझकर खाना। स्वाद के वश होकर खाते मत रहना। जीने के लिए खाना हैं, न कि खाने के लिए जीना ।
घनश्यामदास बिड़ला
नोट :
श्री घनश्यामदास जी बिरला का अपने बेटे के नाम लिखा हुवा पत्र इतिहास के सर्वश्रेष्ठ पत्रों में से एक माना जाता है l विश्व में जो दो सबसे सुप्रसिद्ध और आदर्श पत्र माने गए है उनमें एक है 'अब्राहम लिंकन का शिक्षक के नाम पत्र' और दूसरा है 'घनश्यामदास बिरला का पुत्र के नाम पत्र।

Monday, 28 August 2017

मध्य काल में सिक्के

मध्य काल में सिक्के----
मुहम्मद बिन कासिम (712)--- खलीफा के सिक्के को प्रचलित करवाया।
अरबों ने खुतबा एवं कलमा को अपने सिक्कों पर खुदवाते थे। दिरहम नामक सिक्के का प्रचलन सिन्ध मे करवाया था।
महमूद गजनवी---- सोने का सिक्का -- 160 ग्रेन।
कलमा/ अलकादिर बिल्लाह अमीर उल मोमनीन का अंकन।
मुसलमानों को फेथफुल कहा जाता है--- अल्लाह, पैगम्बर।
चाँदी का दिरहम--- लाहौर से।
लाहौर का नाम बदल कर रख दिया महमूदपुर।
सिक्के पर--- कलमा / उपाधि-- अमीरउद्दौला। यह कूफी लिपि (old arabic) मे लिखा गया है।
सिक्के के एक पट पर संस्कृत में अव्यमेकं मुहम्मद अवतारः अंकित है। अव्यमेकं(निर्गुण)।
मुहम्मद को रसूल के अवतार का रुप दिया गया है।
मुहम्मद गोरी---
दो तरह के सिक्के---- 1. लक्ष्मी प्रकार 2. वृषभ-- अश्वारोही प्रकार।
वृषभ--श्रीमुहम्मद बिन साम, घोड़ा--श्रीहम्मीर। 11वी व 12वी शदी मे यही सिक्के प्रचलन में थे।
बख्तियार खिलजी---- सोने का। अपने मालिक मुहम्मद गौरी के नाम पर सिक्का चलवाया था।
ऐबक के एक भी सिक्के नहीं मिलते हैं।
इल्तुतमिश---मुद्रा प्रणाली का मानकीकरण(standa
rdize) किया। 1. टंका 2. जीतल
1228 ई० मे इल्तुतमिश ने एक सिक्का चलवाया है जिसके ऊपर अब्बासी खलीफा अल मुस्तनसीर का नाम अंकित है।
कयास कुरान हदीस इजमा इस्लामी कानून के आधार हैं।
मिल्लत--- बिरादरी मे तय किया जाएगा---सर्वोत्तम को सर्वश्रेष्ठ।
अबूबक्र, उस्मान उमर अली---चार खलीफा।
बुल या वृषभ व अश्वारोही प्रकार के सिक्के चलाये।
श्री शमशुद्दीन, श्री हम्मीर---- नागरी लिपि। नागरी मे विक्रम संवत अंकित है। अभी भारत में हिजरी सम्वत शुरू नहीं हुआ था।
रजिया सुल्तान--- सिक्के पर पिता का नाम है।
अपने सिक्के नही चलाए।
बलबन--- बलबन के पूर्व जो सुल्तानों के चित्रांकन सिक्के पर थे बलबन ने उसे समाप्त कर दिया।
जलालुद्दीन--- कोई नया सिक्का नही।
अलाउद्दीन खिलजी--- 100 तोले तक का सोने का सिक्का।
सबसे बड़ा सोने का सिक्का--200 तोला----मुबारकशाह।
ठक्कर फेरू----मुद्राशास्त्री था।
अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सिक्के से खलीफा का नाम हटवा दिया। उस पर लिखवाया 'सिकंदर उस सानी'।
मुबारकशाह--- स्वयं खलीफा। अल इमाम अल आजम खलीफा रब अल अल्मीन।
Supreme Head of Islam.
Khalifa of the Lord of Heaven and Earth.
अलाउद्दीन--- गनी सिक्का चलवाया। 60 गनी = 1 टंका। जीतल को बंद करवा दिया। इसके स्थान पर दाम चलवाया। एगनी, दुगन्नी, चौगन्नी। गनी मूलतः ताँबें का होता था। इसमें कुछ मात्रा चाँदी का मिलाया । एगन्नी मे 5%, दुगन्नी मे 9.75%, चौगन्नी मे 16.4% ।
गनी का बिसवां हिस्सा बिस्वा कहा जाता था। क्रमशः घटते हुए---- टंका-गनी-बिस्वा।
बिस्वा के बाद अध्वा। अध्वा= 1/8 गनी।
पैसा= 1/4 गनी= 5 बिस्वा।
सिक्कों का राजकुमार-----मुहम्मद बिन तुगलक।
इल्तुतमिश-- सिक्के की ढलाई--दिल्ली में
रजिया--- लखनौती
अलाउद्दीन--- देवगिरि, रणथम्भौर
मुबारक--- कुतुबाबाद(देवगिरि), रणथंभौर
मु. बिन तु.MBT---- दिल्ली, रणथंभौर(दारूल इस्लाम), लखनौती, सतगाँव, सुल्तानपुर, तेलंगाना, तुगलकाबाद(तिरूहित)।
MBT---- सिक्के पर अलशहीद का अंकन। MBT का इसके द्वारा गयासुद्दीन के प्रति श्रद्धा व्यक्त किया गया है।
MBT ने कलमा का अंकन पुनः शुरू करवाया। सिक्के का भार बढ़ा दिया।
टंका -- 170 ग्रेन मे परिवर्तन कर टंका की जगह दीनार---201 ग्रेन का प्रचलन करवाया।
अपने जीवन काल में ही दीनार को बंद करवा दिया। फिर आ गया टंका।
अदली नामक चाँदी का सिक्का चलवाया---144 ग्रेन।
सांकेतिक मुद्रा---- एक महान प्रयोग किन्तु असफल हुई। ताँबे का सिक्का चलवाया।
प्रशासन के द्वारा प्रशासित मौद्रिक व्यवस्था ही सांकेतिक मुद्रा है जिस पर शासक द्वारा मूल्य का अंकन हुआ था।
बहलोल लोदी---चाँदी की कमी। कापर एवं विलन के सिक्के चलवाए।

Sunday, 27 August 2017

भागवत धर्म

भागवत धर्म-
गुप्तकाल में ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान हुआ। मूर्ति उपासना का केन्द्र बन गई। यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया। भागवत धर्म ब्राह्मण धर्म से इस बात में भिन्न था कि उसने उपनिषद् द्वारा प्रतिपादित विश्व ब्रह्म की जगह एक व्यक्तिगत ईश्वर को उपासना का केन्द्र बनाया। भागवत धर्म पाणिनी के समय से ही प्रचलित था जबकि वैष्णव शब्द का प्रयोग 5वीं सदी से होने लगा। था। पाणिनी ने वसुदेव के पुजारी वासुदेवका की चर्चा की है। मेगस्थनीज का भी कहना है कि सुरेसन (मथुरा) के लोग वासुदेव की पूजा करते थे। ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु का उल्लेख सर्वोच्च देवता के रूप में हुआ है। पतंजलि ने वासुदेव के पर्यायवाची नामों में कृष्ण और जनार्दन का उल्लेख किया है। उसने केशव और राम के मन्दिरों में उत्सवों का भी जिक्र किया है। वासुदेव कृष्ण वृष्णि अथवा सतवत् वंश के थे। यादव कुल के नायक जो धार्मिक आंदोलन के नेता थे, कालांतर में देवता बन गए। आभीर जातियों ने ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में वासुदेव की पूजा को लोकप्रिय बना दिया। छांदोग्य उपनिषद् में वासुदेव कृष्ण की चर्चा है। उन्हें ऋषि घोरा का शिष्य और देवकी का पुत्र बताया गया। ऋग्वेद काल में ही हमें विष्णु देवता मिलते हैं। ऋग्वेद में वे सूर्य संबंधित हैं। उत्तर वैदिक काल में विष्णु की उपासना यज्ञ के द्वारा की जाती थी। भागवत गीता के अनुसार भागवत धर्म का सिद्धांत सबसे पहले ब्रह्म ने सूर्य बताया, फिर सूर्य ने मनु को बताया और मनु ने इच्छवाकु को सिखाया। सिद्धांत को सतवत् पद्धति का योग कहा जाता है। छांदोग्य उपनिषद् मानता कि वासुदेव कृष्ण का उदय सातवीं एवं छठीं सदी ई.पू. हुआ था। इसकी पुष्टि जैन परंपरा के अनुसार भी होती है क्योंकि यह वासुदेव कृष्ण को अरिष्टिनेमी (जैन तीर्थंकर) का समकालीन मानता है। तैत्तरीय अरण्यक वासुदेव को नारायण और विष्णु से जोड़ता है। बौधायन के धर्मसूत्र में भी वासुदेव और नारायण को जोड़ा गया है। नारायण की पूजा पद्धति संभवत: सबसे पहले हिमालय क्षेत्र में प्रचलित हुई थी। नारायण के उपासक मौलिक रूप से पांचरात्रिक के नाम से जाने जाते थे। बाद मेंवासुदेव से संयुक्त हो गए। पांचरात्र शब्द सबसे पहले शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित है। मान्यता यह है कि पुरुष नारायण ने पांचरात्र सत्र किया जो पांच रातों तक चलता रहा। इससे सृष्टि का विकास हुआ। इसके विकासक्रम में भगवान के 5 रूपों की ओर संकेत है। वैष्णवों ने इन 5 रूपों पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और अर्चा (मूर्ति) का नाम दिया है। अर्थात् वासुदेव जो है वे क्रमश: 5 रूपों में प्रकट होते हैं। पाँचरात्र मत के अनुसार समस्त सृष्टि का बीज भगवान वासुदेव में सिमटा हुआ है। इससे छः गुण- ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज विकसित हुए। इनमें ज्ञान और बल, ऐश्वर्य और वीर्य, शक्ति और तेज के तीन जोड़े बनते हैं। इन जोडों को व्यूह कहते हैं। ये तीन व्यूह संकर्षण (बलराम), प्रद्युम्न (वासुदेव का पुत्र) और अनिरुद्ध (वासुदेव का पौत्र) हैं। इनके ऊपर वासुदेव कृष्ण हैं। ये चार व्यूहों से 16 उपव्यूह फिर 4 विद्येश्वर बनते हैं। ये सब मिलकर वासुदेव की 24 मूर्तियाँ होती हैं। इसके बाद भगवान अपने आप को प्रकृति के विविध रूपों में प्रकट करते हैं। ये इनके विभव है। यही अवतार है। विभव अवतार भी कहे जाते हैं। घोसुंडी (उदयपुर, राजस्थान) से दूसरी ई.पू. का अभिलेख प्राप्त हुआ। ज्ञात है नारायण की पूजा के लिए बने एक अहाते में सकर्षण और वासुदेव उपासना के लिए भी अहाता बना हुआ है। इसका निर्माण पराशरी का पुत्र गजायान ने करवाया था। एक पंचाल राजा विष्णुमित्र का एक सिक्का प्राप्त हुआ, जिस पर चार हाथों वाला ईश्वर का चित्र है जिनके बाँये हाथ में एक चक्र है। उसी तरह कुषाण काल की एक मुहर प्राप्त होती है जिस पर ऐसी तस्वीर मिली है, जिसके एक हाथ में शंख, दूसरे हाथ में चक्र, तीसरे में गदा और चौथे हाथ में रिंग की तरह कोई चीज है। कनिघम ने इस सिक्के को हुविष्क से संबंद्ध माना है। प्रथम शताब्दी के मथुरा के मोरा नामक जगह से एक अभिलेख मिला है। इस अभिलेख में पाँच वृष्णि नायकों का वर्णन है। वायु पुराण में कहा गया है कि वासुदेव (वासुदेव-देवकी का पुत्र)। संकर्षण (रोहिणी से वसुदेव का पुत्र) प्रद्युम्न (रुक्मणी से वासुदेव का पुत्र) शम्ब (जाम्बती से वासुदेव का पुत्र) थे। भागवत एवं पाँचरात्र संप्रदाय ने ही ब्राह्मण धर्म में मूर्तिपूजा को प्रोत्साहित किया। उत्तर मध्य काल में राधा-कृष्ण के साथ जुड़ गये। शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित मत्स्य कच्छप तथा वराह के स्वरूप को विष्णु से संबंधित कर दिया गया। गुप्तयुग में अवतारवाद की अवधारणा प्रचलित हो गई। सबसे पहले भागवत गीता में अवतारवाद के सिद्धांत का व्यापक निरूपण किया गया है। अहीरबधन्य संहिता में 39 अवतारों की चर्चा है। इनमें शान्तोत्मा, बुद्ध का परिचायक है परन्तु आमतौर पर 10 अवतारों की चर्चा मिलती है- 1. मत्स्य, 2. क्रुर्म, 3. बराह, 4. नरसिंह, 5. वामन, 6. परशुराम, 7. राम, 8. कृष्ण, 9. बुद्ध, 10. कल्कि- आने वाला अवतार (विष्णु के) हैं।
कश्मीरी लेखक क्षेमेन्द्र की (1050 ई.) दशावतारचरित में बुद्ध को अवतार माना गया है। जयदेव अपने गीत गोविन्द में लिखते हैं कि विष्णु पशुओं के प्रति करूणा का भाव रखने के कारण बुद्ध के नजदीक आ गए। वैष्णववादी अवधारणा के विकास के दूसरे चरण में विष्णु की पत्नी के रूप में भी श्री या लक्ष्मी की पहचान हुई। स्कंदगुप्त के समय लक्ष्मी विष्णु से जुड़ गई। कुछ अभिलेखों में उसे वैष्णवी कहा गया है। वैष्णव धर्म में ईश्वर को प्राप्त करने की तीन विधियां हैं- ज्ञान, कर्म और भक्ति। इनमें सर्वाधिक महत्त्व भक्ति को दिया गया है। वैष्णव धर्म में तप और धार्मिक अनुष्ठान के बदले ईश्वर की कृपा पर अधिक बल दिया गया है। भक्ति का अभिप्राय सभी इच्छाओं और कमों को भगवान को अर्पित कर देना है। ज्ञान का संबंध भक्ति से जोड़ दिया गया। दूसरी तरफ कर्म के महत्त्व पर भी बल दिया गया, ऐसा माना गया कि निष्क्रियता नहीं, वरन् सच्चे कर्म से भगवान प्रसन्न होते हैं। दुर्गा, कार्तिकेय एवं गणेश जैसे देवी-देवताओं के उदय के साथ संकर्षण ने अपना महत्त्व खो दिया। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध को विष्णु के 4 मुखों के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उन्हें क्रमश: विष्णु के बल, ज्ञान, ऐश्वर्य और शक्ति का प्रतिनिधि माना गया है। भागवत एवं वैष्णव संप्रदाय में अहिंसा पर बल दिया गया है। भागवत धर्म का महत्त्वपूर्ण स्रोत निम्न है- महाभारत, भागवद्गीता, भगवतपुराण, नारदसूत्र, शाण्डिल्यसूत्र। भागवत अथवा वैष्णव धर्म का चरमोत्कर्ष गुप्त राजाओं के शासन-काल (319-550 ई.) में हुआ। गुप्त नरेश, स्वत: वैष्णव, मतानुयायी थे। अधिकांश शासकों ने परम भागवत की उपाधि धारण कर रखी थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के सिक्के पर परमभागवत खुदा हुआ है। चन्द्रगुप्त और समुद्रगुप्त के सिक्के पर विष्णु के वाहन गरूड़ की प्रतिमा बनी हुई है। स्कंदगुप्त के भीतरी स्तंभलेख में वासुदेव कृष्ण की मूर्ति का उल्लेख है। स्कंदगुप्त के जूनागढ़ तथा बुद्धगुप्त के एरण अभिलख विष्णु की स्तुति से प्रारंभ होते है। देशागढ़ का दशावतार मंदिर, गुप्तकाल में वैष्णव धर्म से सम्बंधित सबसे महत्वपूर्ण मन्दिर है।

Saturday, 26 August 2017

सातवाहन

सातवाहन काल-
स्वर्ण सिक्के का उल्लेख केवल साहित्य में है लेकिन मिले नहीं है। चाँदी के सिक्के मिले हैं । शक शासक नहपान के सिक्के को सातवाहनों ने अपने नाम पर ढलवा लिया।
रोम से सिक्के मगवाते थे ।
सीसा पोटीन ताँबे के सिक्के।
भाषा--प्राकृत, लिपि--ब्राह्मी, सिर्फ नाम अंकित है राजा की छवि नही।
सबसे ज्यादा जोगलथम्बी, करीमनगर से मिले हैं।
गुप्त काल---
सबसे ज्यादा सोना चांदी ताँबा का मिला है। कुल 20 प्रकार के सिक्के।
सबसे लोकप्रिय धनुर्धारी प्रकार का।
कुमारगुप्त के सबसे ज्यादा सिक्के मिले हैं।
केवल घटोत्कच, चन्द्रगुप्त प्रथम, कच, रामगुप्त के धनुर्धारी प्रकार के सिक्के नही मिले हैं, अन्य सभी के मिले हैं।
A चन्द्रगुप्त प्रथम----- राजदम्पत्ति का सिक्का (सबसे ज्यादा)। सिंहवाहिनी, लिच्छवयः का अंकन।
B कच के सिक्के पर सर्वराजोच्छेता का अंकन।
C समुद्रगुप्त--- 6 प्रकार के सिक्के। अश्वमेध प्रकार पर राजा का अंकन नही है केवल घोड़ा, समुद्र का है।
D चन्द्रगुप्त द्वितीय-- चन्द्र, विक्रम प्रकार के सिक्के।
E कुमारगुप्त--- 6 नये प्रकार के सिक्के केवल इसी ने चलाये, अन्य किसी ने नहीं। कार्तिकेय, गजारोही, षडगधारी। मयूर का अंकन।
F भानुगुप्त की उपाधि प्रकाशादित्य का अंकन
सिक्कों का भार--- कुषाण ----122-123 ग्रेन-- आठ ग्राम के आस पास।
चन्द्रगुप्त प्रथम, कच, समुद्रगुप्त---118 से 120 ग्रेन। कुषाणों से कम वजन के हैं।
चन्द्रगुप्त द्वितीय--- औसत 121 ग्रेन, कभी कभी 128 ग्रेन।
कुमारगुप्त का भी इसी प्रकार का है।
स्कन्दगुप्त--- 132 से 144 ग्रेन
विष्णुगुप्त--- 151 ग्रेन
सिक्कों का वजन क्रमशः बढ़ रहा है लेकिन शुद्धता घट रही है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय--- सोने की शुद्धता 80 %
स्कन्दगुप्त --- 67%
विष्णुगुप्त--- 40% । सबसे बड़ा एवं सबसे अशुद्ध सोने का सिक्का विष्णुगुप्त का है।
चाँदी के सिक्के--- चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त, स्कन्दगुप्त, बुद्धगुप्त के हैं।
सबसे ज्यादा चाँदी का सिक्का चन्द्रगुप्त द्वितीय ने चलाया । पश्चिमी भारत में।
ताँबे के सिक्के--- समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, रामगुप्त, कुमारगुप्त।
रामगुप्त के विदिशा एवं एरण से ।
पश्चिमी क्षत्रपों के समान चाँदी का सिक्का चलाया गया था उसी तरह सीसे के सिक्के चलाये गये सेम पैटर्न पर। चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त, स्कन्दगुप्त द्वारा।

Thursday, 24 August 2017

सिक्कें

सिक्के- 1 अर्थशास्त्र मे पण,अर्द्धपण,अर्द्धपाद। मूल इकाई पण थी। अधिकांश चाँदी के,कुछ ताँबे के। लेकिन सोने के सिक्के का उल्लेख नहीं।
2.मगध से मौर्य तक 56 ग्रेन के
3. मौर्योत्तर काल - एक निश्चित आकार का होता था। नगर का नाम, श्रेणियों का नाम, त्रिशूलधारी शिव का अंकन (विश्वास का प्रतीक)।
ग्रीक---- सोने, चाँदी, ताँबे, --- सबसे पहले। सोने एवं चाँदी के सबसे ज्यादा मौर्योत्तर काल में।
कुषाण--- ताँबे का सबसे ज्यादा।
ताँबे मे निकिल के प्रयोग के एक-दो प्रमाण।
पोटीन, सीसे के सिक्के।
A कुजुल कडफिसस--- ताँबे का। हर्मियस, हेराक्लीज़ का अंकन।
B विम कडफिसस--- दीनार, द्विनार,पाददीनर। अंकन-- हवनकुंड मे आहूत करते हुए, बादलों में उड़ रहा है और भुजाओं से अग्नि की ज्वाला निकल रही है। दैवी राजतंत्र का प्रतीक--- सिक्कों पर शिव का त्रिशूल के साथ और बिना त्रिशूल के भी अंकन है। बिना शिव के केवल त्रिशूल का भी अंकन है।
ग्रीक और खरोष्ठी लिपि का अंकन।
C कनिष्क---- इसका कनिष्क नाम इरानी भाषा समुदाय के शक भाषा में है।
कोट,जूता, हैट,कमरबन्द, हाथ में भाला। हवनकुंड मे आहूत देते हुए---यज्ञ में विश्वास। सिक्के पर भारतीय और इरानी देवताओं के नाम। शिव का नाम अयसो बताया गया है।बुद्ध को बोद्धो या शकमोनोबोद्धो ।
D हुविष्क---- यूनानी, इरानी, भारतीय देवता का अंकन। स्वयं हुविष्क का अंकन। शिव, शिव उमा, शिव नाना(विदेशी देवी)। कार्तिकेय, महासेन, स्कन्द, विशाख का अंकन।
E.वासुदेव--- हवन में आहुति देता हुआ। अधिकांशतः शिव का अंकन। वासुदेव का अंकन।

Saturday, 19 August 2017

विजयनगर साम्राज्य

'विजयनगर साम्राज्य'
साम्राज्य
1336 – 1646
राजधानी विजयनगर
सरकार राजतंत्र
इतिहास
- संस्थापित 1336
- विसंस्थापित 1646
विजयनगर साम्राज्य - १५वीं सदी में
विजयनगर साम्राज्य (1336-1646) मध्यकालीन दक्षिण भारत का एक साम्राज्य था। इसके राजाओं ने ३१० वर्ष राज किया। इसका वास्तविक नाम कर्णाटक साम्राज्य था। इसकी स्थापना हरिहर प्रथम और बुक्का राय प्रथम नामक दो भाइयों ने की थी। ऐसा माना जाता है कि यह भाई पासी थे। पुर्तगाली इसे बिसनागा राज्य के नाम से जानते थे।
इस राज्य की १५६५ में भारी पराजय हुई और राजधानी विजयनगर को जला दिया गया। उसके पश्चात क्षीण रूप में यह और ८० वर्ष चला। राजधानी विजयनगर के अवशेष आधुनिक कर्नाटक राज्य में हम्पी शहर के निकट पाये गये हैं और यह एक विश्व विरासत स्थल है। पुरातात्त्विक खोज से इस साम्राज्य की शक्ति तथा धन-सम्पदा का पता चलता है।
परिचय संपादित करें
दक्षिण भारत के नरेश इस्लाम के प्रवाह के सम्मुख झुक न सके। मुसलमान उस भूभाग में अधिक काल तक अपनी विजयपताका फहराने में असमर्थ रहे। इस्लाम के प्रभुत्व को मिटाकर विजयनगर के सम्राटों ने पुन: हिंदू धर्म को जाग्रत किया। यही कारण है कि दक्षिणपथ के इतिहास में विजयनगर राज्य को विशेष स्थान दिया गया है।
दक्षिण भारत की कृष्णा नदी की सहायक तुंगभद्रा को इस बात का गर्व है कि विजयनगर उसकी गोद में पला। उसी के किनारे प्रधान नगरी हंपी स्थित रही। विजयनगर के पूर्वगामी होयसल नरेशों का प्रधान स्थान यहीं था। दक्षिण का पठार दुर्गम है इसलिए उत्तर के महान सम्राट् भी दक्षिण में विजय करने का संकल्प अधिकतर पूरा न कर सके।
द्वारसमुद्र के शासक वीर वल्लाल तृतीय ने दिल्ली सुल्तान द्वारा नियुक्त कंपिलि के शासक मलिक मुहम्म्द के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी। ऐसी परिस्थिति में दिल्ली के सुल्तान ने मलिक मुहम्मद की सहायता के लिए दो (हिंदू) कर्मचारियों को नियुक्त किया जिनके नाम हरिहर तथा बुक्क थे। इन्हीं दोनों भाइयों ने स्वतंत्र विजयनगर राज्य की स्थापना की। सन् १३३६ ई. में हरिहर ने वैदिक रीति से राज्याभिषेक संपन्न किया और तुंगभद्रा नदी के किनारे विजयनगर नामक नगर का निर्माण किया।
विजयनगर राज्य में चार विभिन्न वंशों ने शासन किया। प्रत्येक वंश में प्रतापी एवं शक्तिशाली नरेशों की कमी न थी। युद्धप्रिय होने के अतिरिक्त, सभी हिंदू संस्कृति के रक्षक थे। स्वयं कवि तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे। हरिहर तथा बुक्क संगम नामक व्यक्ति के पुत्र थे अतएव उन्होंने संगम सम्राट् के नाम से शासन किया। विजयनगर राज्य के संस्थापक हरिहर प्रथम ने थोड़े समय के पश्चात् अपने वरिष्ठ तथा योग्य बंधु को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। संगम वंश के तीसरे प्रतापी नरेश हरिहर द्वितीय ने विजयनगर राज्य को दक्षिण का एक विस्तृत, शक्तिशाली तथा सुदृढ़ साम्राज्य बना दिया। हरिहर द्वितीय के समय में सायण तथा माधव ने वेद तथा धर्मशास्त्र पर निबंधरचना की। उनके वंशजों में द्वितीय देवराय का नाम उल्लेखनीय है जिसने अपने राज्याभिषेक के पश्चात् संगम राज्य को उन्नति का चरम सीमा पर पहुँचा दिया। मुसलमानी रियासतों से युद्ध करते हुए, देबराय प्रजापालन में संलग्न रहा। राज्य की सुरक्षा के निमित्त तुर्की घुड़सवार नियुक्त कर सेना की वृद्धि की। उसके समय में अनेक नवीन मंदिर तथा भवन बने।
दूसरा राजवंश सालुव नाम से प्रसिद्ध था। इस वंश के संस्थापक सालुब नरसिंह ने १४८५ से १४९० ई. तक शासन किया। उसने शक्ति क्षीण हो जाने पर अपने मंत्री नरस नायक को विजयनगर का संरक्षक बनाया। वही तुलुव वंश का प्रथम शासक माना गया है। उसने १४९० से १५०३ ई. तक शासन किया और दक्षिण में कावेरी के सुदूर भाग पर भी विजयदुंदुभी बजाई। तुलुब वंशज कृष्णदेव राय का नाम गर्व से लिया जाता है। उसने १५०९ से १५३९ ई. तक शासन किया। वह महान प्रतापी, शक्तिशाली, शांतिस्थापक, सर्वप्रिय, सहिष्णु और व्यवहारकुशल शासक था। उसने नायक लोगों को दबाया, उड़ीसा पर आक्रमण किया और दक्षिण के भूभाग पर अपना अधिकार स्थापित किया। सोलहवीं सदी में यूरोप से पुर्तगाली भी पश्चिमी किनारे पर आकर डेरा डाल चुके थे। उन्होंने कृष्णदेव राय से व्यापारिक संधि की जिससे विजयनगर राज्य की श्रीवृद्धि हुई। तुलुव वंश का अंतिम राजा सदाशिव परंपरा को कायम न रख सका। सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था। सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा दिया अतएव सन् १५६५ ई. में तलिकोट के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है। उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट् में पारस्परिक युद्ध होने के कारण वह मुसलमानी आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया।
हिंदू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते रहे, परंतु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में र्को परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मंदिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं।
हम्पी के विरुपक्ष मन्दिर के अलंकृत स्तम्भ
विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबंध का संचालन करते थे। केंद्रीय मंत्रिमंडल की समस्त मंत्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबंध के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति निर्भर थी। सुदूर दक्षिण में सामंत वर्तमान थे जो वार्षिक कर दिया करते थे और राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुंदर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है।
विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि पर पृथक्-पृथक् कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक दंड तथा आयात पर निर्धारित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित कोष के रूप में सुरक्षित रहता और चौथा भाग दान एवं महल संबंधी कार्यों में व्यय किया जाता था।
भारतीय साहित्य के इतिहास में विजयनगर राज्य का उल्लेख अमर है। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के कवियों को बुक्क ने भूमि दान में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्य बहुमुख प्रतिभा के पंडित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र संबंधी क्रमश: जैमिनीय न्यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रंथों की रचना की थी उसी के भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल में हिंदू संस्कृति के आदि ग्रंथ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों का अर्थ समझते हैं। विजयनगर के राजाओं के सय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य पुस्तकें लिखी गईं।
बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर के राजाओं ने शैव मत को अपनाया, यद्यपि उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म भी पल्लवित होते रहे। विजयनगर की कला धार्मिक प्रवृत्तियों के कारण जटिल हो गई। मंदिरों के विशाल गोपुरम् तथा सुंदर, खचित स्तंभयुक्त मंडप इस युग की विशेषता हैं। विजयनगर शैली की वास्तुकला के नमूने उसके मंदिरों में आज भी शासकों की कीर्ति का गान कर रहे हैं।
स्थापत्य कला संपादित करें
इस साम्राज्य के विरासत के तौर पर हमें संपूर्ण दक्षिण भारत में स्मारक मिलते हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध हम्पी के हैं। दक्षिण भारत में प्रचलित मंदिर निर्माण की अनेक शैलियाँ इस साम्राज्य ने संकलित कीं और विजयनगरीय स्थापत्य कला प्रदान की। दक्षिण भारत के विभिन्न सम्प्रदाय तथा भाषाओं के घुलने-मिलने के कारण इस नई प्रकार की मंदिर निर्माण की वास्तुकला को प्रेरणा मिली। स्थानीय कणाश्म पत्थर का प्रयोग करके पहले दक्कन तथा उसके पश्चात् द्रविड़ स्थापत्य शैली में मंदिरों का निर्माण हुआ। धर्मनिर्पेक्ष शाही स्मारकों में उत्तरी दक्कन सल्तनत की स्थापत्य कला की झलक देखने को मिलती है।
उत्पत्ति संपादित करें
इस साम्राज्य की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न दंतकथाएँ भी प्रचलित हैं। इनमें से सबसे अधिक विश्वसनीय यही है कि संगम के पुत्र हरिहर तथा बुक्का ने हम्पी हस्तिनावती राज्य की नींव डाली। और विजयनगर को राजधानी बनाकर अपने राज्य का नाम अपने गुरु के नाम पर विजयनगर रखा[1]।
दक्षिण भारत में मुसलमानों का प्रवेश अलाउद्दीन खिल्जी के समय हुआ था। लेकिन अलाउद्दीन उन राज्यों का हराकर उनसे वार्षिक कर लेने तक ही सीमित रहा। मुहम्मद बिन तुगलक ने दक्षिण में साम्राज्य विस्तार के उद्येश्य से कम्पिली पर आक्रमण कर दिया और कम्पिली के दो राज्य मंत्रियों हरिहर तथा बुक्का को बंदी बनाकर दिल्ली ले आया। इन दोनों भाइयों द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने के बाद इन्हें दक्षिण विजय के लिए भेजा गया। माना जाता है कि अपने इस उद्येश्य में असफलता के कारण वे दक्षिण में ही रह गए और विद्यारण्य नामक सन्त के प्रभाव में आकर हिन्दू धर्म को पुनः अपना लिया। इस तरह मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में ही भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की गई।
साम्राज्य विस्तार संपादित करें
विजयनगर की स्थापना के साथ ही हरिहर तथा बुक्का के सामने कई कठिनाईयां थीं। वारंगल का शासक कापाया नायक तथा उसका मित्र प्रोलय वेम और वीर बल्लाल तृतीय उसके विरोधी थे। देवगिरि का सूबेदार कुतलुग खाँ भी विजयनगर के स्वतंत्र अस्तित्व को नष्ट करना चाहता था। हरिहर ने सर्वप्रथम बादामी, उदयगिरि तथा गुटी के दुर्गों को सुदृढ़ किया। उसने कृषि की उन्नति पर भी ध्यान दिया जिससे साम्राज्य में समृद्धि आयी। होयसल साम्राट वीर बल्लाल मदुरै के विजय अभियान में लगा हुआ था। इस अवसर का लाभ उठाकर हरिहर ने होयसल साम्राज्य के पूर्वी बाग पर अधिकार कर लिया। बाद में वीर बल्लाल तृतीय मदुरा के सुल्तान द्वारा 1342 में मार डाला गया। बल्लाल के पुत्र तथा उत्तराधिकारी अयोग्य थे। इस मौके को भुनाते हुए हरिहर ने होयसल साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। आगे चलकर हरिहर ने कदम्ब के शासक तथा मदुरा के सुल्तान को पराजित करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।
हरिहर के बाद बुक्का सम्राट बना हंलाँकि उसने ऐसी कोई उपाधि धारण नहीं की। उसने तमिलनाडु का राज्य विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया। कृष्णा नदी को विजयनगर तथा बहमनी की सीमा मान ली गई। बुक्का के बाद उसका पुत्र हरिहर द्वितीय सत्तासीन हुआ। हरिहर द्वितीय एक महान योद्धा था। उसने अपने भाई के सहयोग से कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, काञ्ची, चिंगलपुट आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।