भागवत धर्म-
गुप्तकाल में ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान हुआ। मूर्ति उपासना का केन्द्र बन गई। यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया। भागवत धर्म ब्राह्मण धर्म से इस बात में भिन्न था कि उसने उपनिषद् द्वारा प्रतिपादित विश्व ब्रह्म की जगह एक व्यक्तिगत ईश्वर को उपासना का केन्द्र बनाया। भागवत धर्म पाणिनी के समय से ही प्रचलित था जबकि वैष्णव शब्द का प्रयोग 5वीं सदी से होने लगा। था। पाणिनी ने वसुदेव के पुजारी वासुदेवका की चर्चा की है। मेगस्थनीज का भी कहना है कि सुरेसन (मथुरा) के लोग वासुदेव की पूजा करते थे। ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु का उल्लेख सर्वोच्च देवता के रूप में हुआ है। पतंजलि ने वासुदेव के पर्यायवाची नामों में कृष्ण और जनार्दन का उल्लेख किया है। उसने केशव और राम के मन्दिरों में उत्सवों का भी जिक्र किया है। वासुदेव कृष्ण वृष्णि अथवा सतवत् वंश के थे। यादव कुल के नायक जो धार्मिक आंदोलन के नेता थे, कालांतर में देवता बन गए। आभीर जातियों ने ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में वासुदेव की पूजा को लोकप्रिय बना दिया। छांदोग्य उपनिषद् में वासुदेव कृष्ण की चर्चा है। उन्हें ऋषि घोरा का शिष्य और देवकी का पुत्र बताया गया। ऋग्वेद काल में ही हमें विष्णु देवता मिलते हैं। ऋग्वेद में वे सूर्य संबंधित हैं। उत्तर वैदिक काल में विष्णु की उपासना यज्ञ के द्वारा की जाती थी। भागवत गीता के अनुसार भागवत धर्म का सिद्धांत सबसे पहले ब्रह्म ने सूर्य बताया, फिर सूर्य ने मनु को बताया और मनु ने इच्छवाकु को सिखाया। सिद्धांत को सतवत् पद्धति का योग कहा जाता है। छांदोग्य उपनिषद् मानता कि वासुदेव कृष्ण का उदय सातवीं एवं छठीं सदी ई.पू. हुआ था। इसकी पुष्टि जैन परंपरा के अनुसार भी होती है क्योंकि यह वासुदेव कृष्ण को अरिष्टिनेमी (जैन तीर्थंकर) का समकालीन मानता है। तैत्तरीय अरण्यक वासुदेव को नारायण और विष्णु से जोड़ता है। बौधायन के धर्मसूत्र में भी वासुदेव और नारायण को जोड़ा गया है। नारायण की पूजा पद्धति संभवत: सबसे पहले हिमालय क्षेत्र में प्रचलित हुई थी। नारायण के उपासक मौलिक रूप से पांचरात्रिक के नाम से जाने जाते थे। बाद मेंवासुदेव से संयुक्त हो गए। पांचरात्र शब्द सबसे पहले शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित है। मान्यता यह है कि पुरुष नारायण ने पांचरात्र सत्र किया जो पांच रातों तक चलता रहा। इससे सृष्टि का विकास हुआ। इसके विकासक्रम में भगवान के 5 रूपों की ओर संकेत है। वैष्णवों ने इन 5 रूपों पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और अर्चा (मूर्ति) का नाम दिया है। अर्थात् वासुदेव जो है वे क्रमश: 5 रूपों में प्रकट होते हैं। पाँचरात्र मत के अनुसार समस्त सृष्टि का बीज भगवान वासुदेव में सिमटा हुआ है। इससे छः गुण- ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज विकसित हुए। इनमें ज्ञान और बल, ऐश्वर्य और वीर्य, शक्ति और तेज के तीन जोड़े बनते हैं। इन जोडों को व्यूह कहते हैं। ये तीन व्यूह संकर्षण (बलराम), प्रद्युम्न (वासुदेव का पुत्र) और अनिरुद्ध (वासुदेव का पौत्र) हैं। इनके ऊपर वासुदेव कृष्ण हैं। ये चार व्यूहों से 16 उपव्यूह फिर 4 विद्येश्वर बनते हैं। ये सब मिलकर वासुदेव की 24 मूर्तियाँ होती हैं। इसके बाद भगवान अपने आप को प्रकृति के विविध रूपों में प्रकट करते हैं। ये इनके विभव है। यही अवतार है। विभव अवतार भी कहे जाते हैं। घोसुंडी (उदयपुर, राजस्थान) से दूसरी ई.पू. का अभिलेख प्राप्त हुआ। ज्ञात है नारायण की पूजा के लिए बने एक अहाते में सकर्षण और वासुदेव उपासना के लिए भी अहाता बना हुआ है। इसका निर्माण पराशरी का पुत्र गजायान ने करवाया था। एक पंचाल राजा विष्णुमित्र का एक सिक्का प्राप्त हुआ, जिस पर चार हाथों वाला ईश्वर का चित्र है जिनके बाँये हाथ में एक चक्र है। उसी तरह कुषाण काल की एक मुहर प्राप्त होती है जिस पर ऐसी तस्वीर मिली है, जिसके एक हाथ में शंख, दूसरे हाथ में चक्र, तीसरे में गदा और चौथे हाथ में रिंग की तरह कोई चीज है। कनिघम ने इस सिक्के को हुविष्क से संबंद्ध माना है। प्रथम शताब्दी के मथुरा के मोरा नामक जगह से एक अभिलेख मिला है। इस अभिलेख में पाँच वृष्णि नायकों का वर्णन है। वायु पुराण में कहा गया है कि वासुदेव (वासुदेव-देवकी का पुत्र)। संकर्षण (रोहिणी से वसुदेव का पुत्र) प्रद्युम्न (रुक्मणी से वासुदेव का पुत्र) शम्ब (जाम्बती से वासुदेव का पुत्र) थे। भागवत एवं पाँचरात्र संप्रदाय ने ही ब्राह्मण धर्म में मूर्तिपूजा को प्रोत्साहित किया। उत्तर मध्य काल में राधा-कृष्ण के साथ जुड़ गये। शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित मत्स्य कच्छप तथा वराह के स्वरूप को विष्णु से संबंधित कर दिया गया। गुप्तयुग में अवतारवाद की अवधारणा प्रचलित हो गई। सबसे पहले भागवत गीता में अवतारवाद के सिद्धांत का व्यापक निरूपण किया गया है। अहीरबधन्य संहिता में 39 अवतारों की चर्चा है। इनमें शान्तोत्मा, बुद्ध का परिचायक है परन्तु आमतौर पर 10 अवतारों की चर्चा मिलती है- 1. मत्स्य, 2. क्रुर्म, 3. बराह, 4. नरसिंह, 5. वामन, 6. परशुराम, 7. राम, 8. कृष्ण, 9. बुद्ध, 10. कल्कि- आने वाला अवतार (विष्णु के) हैं।
कश्मीरी लेखक क्षेमेन्द्र की (1050 ई.) दशावतारचरित में बुद्ध को अवतार माना गया है। जयदेव अपने गीत गोविन्द में लिखते हैं कि विष्णु पशुओं के प्रति करूणा का भाव रखने के कारण बुद्ध के नजदीक आ गए। वैष्णववादी अवधारणा के विकास के दूसरे चरण में विष्णु की पत्नी के रूप में भी श्री या लक्ष्मी की पहचान हुई। स्कंदगुप्त के समय लक्ष्मी विष्णु से जुड़ गई। कुछ अभिलेखों में उसे वैष्णवी कहा गया है। वैष्णव धर्म में ईश्वर को प्राप्त करने की तीन विधियां हैं- ज्ञान, कर्म और भक्ति। इनमें सर्वाधिक महत्त्व भक्ति को दिया गया है। वैष्णव धर्म में तप और धार्मिक अनुष्ठान के बदले ईश्वर की कृपा पर अधिक बल दिया गया है। भक्ति का अभिप्राय सभी इच्छाओं और कमों को भगवान को अर्पित कर देना है। ज्ञान का संबंध भक्ति से जोड़ दिया गया। दूसरी तरफ कर्म के महत्त्व पर भी बल दिया गया, ऐसा माना गया कि निष्क्रियता नहीं, वरन् सच्चे कर्म से भगवान प्रसन्न होते हैं। दुर्गा, कार्तिकेय एवं गणेश जैसे देवी-देवताओं के उदय के साथ संकर्षण ने अपना महत्त्व खो दिया। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध को विष्णु के 4 मुखों के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उन्हें क्रमश: विष्णु के बल, ज्ञान, ऐश्वर्य और शक्ति का प्रतिनिधि माना गया है। भागवत एवं वैष्णव संप्रदाय में अहिंसा पर बल दिया गया है। भागवत धर्म का महत्त्वपूर्ण स्रोत निम्न है- महाभारत, भागवद्गीता, भगवतपुराण, नारदसूत्र, शाण्डिल्यसूत्र। भागवत अथवा वैष्णव धर्म का चरमोत्कर्ष गुप्त राजाओं के शासन-काल (319-550 ई.) में हुआ। गुप्त नरेश, स्वत: वैष्णव, मतानुयायी थे। अधिकांश शासकों ने परम भागवत की उपाधि धारण कर रखी थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के सिक्के पर परमभागवत खुदा हुआ है। चन्द्रगुप्त और समुद्रगुप्त के सिक्के पर विष्णु के वाहन गरूड़ की प्रतिमा बनी हुई है। स्कंदगुप्त के भीतरी स्तंभलेख में वासुदेव कृष्ण की मूर्ति का उल्लेख है। स्कंदगुप्त के जूनागढ़ तथा बुद्धगुप्त के एरण अभिलख विष्णु की स्तुति से प्रारंभ होते है। देशागढ़ का दशावतार मंदिर, गुप्तकाल में वैष्णव धर्म से सम्बंधित सबसे महत्वपूर्ण मन्दिर है।
Sunday, 27 August 2017
भागवत धर्म
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